मुसलसल उनकी बातें,मुझे तोड़ती रही, उस रोज़ क्या-क्या हुआ, तुम नहीं जानते। मैं धागों में पिरोती रही, दास्तां-ए-इश्क, उसने कितनी दफे तोड़ा, तुम नहीं जानते। मयस्सर हुआ था, एक मकान मेरे नाम, टुकड़ों में मिला ख़्वाबगाह, तुम नहीं जानते। असल में चुभती रही,मैं सबको अब तक, हँस के बात करने के नाटक, तुम नहीं जानते। इंतज़ार में बैठी थी,एक अरसे से उसके, किसको साथ ले आया वो, तुम नहीं जानते। क्या बीती,कितनी गुज़री,कैसे कहूॅं 'भाग्य' गले में किस्से फॅंसे कितने, तुम नहीं जानते। ♥️ Challenge-973 #collabwithकोराकाग़ज़ ♥️ इस पोस्ट को हाईलाइट करना न भूलें! 😊 ♥️ दो विजेता होंगे और दोनों विजेताओं की रचनाओं को रोज़ बुके (Rose Bouquet) उपहार स्वरूप दिया जाएगा। ♥️ रचना लिखने के बाद इस पोस्ट पर Done काॅमेंट करें।