भोला-सा, धुंधला-सा बचपन /अनुशीर्षक उधर बालकनी के रोशनदान में से चिड़ियां अपने बच्चों के लिए दाना लेने जाने लगती तो सारे चूज़े एक साथ चिड़िया के पंखों की सरसराहट की आवाज के साथ जग जाते और चूं-चूं चूं-चूं करने लग जाते थे। और, उस चूंं-चूं से पता नहीं नही क्यों मुझे भूख लग जाती थी। मम्मी को जगा कर, मैं बोलती कि भूख लगी है, खाने को दो। इस समय सुबह के कुछ 4:30 बजते होंगे कुछ। ऐसा कई बार होता होगा शायद, क्योंकि फिर मेरे लिए कमरे में ही एक ब्रिटैनिया मिल्क बिकीज का पैकेट, दूध का थरमस फ्लासक और एक छोटी-सी चांदी की कटोरी रखी जाने लगी। चूंजों का खाना लेकर जैसे चिड़िया आती, तब तक में मेरा इंतजाम भी शुरू हो जाता। मम्मी निकाल कर दे देती, लेकिन ड्यूटी पापा की होती कि मुझे खिलाए। मम्मी दिनभर की थकी रहती थी तो वह सो जाती थी। पापा चिड़िया और चिड़िया के बच्चों की चूं-चूं के साथ-साथ कहानियां बना धीरे-धीरे खिलाते और भोर होती रहती। उजाला होने के साथ-साथ चिड़िया के बच्चे शांत हो जाते हैं और मैं भी फिर से सो जाती थी। फिर शायद दिवाली आई, चिड़िया का घोंसला देखने की उत्सुकता ने हम सारे घर के बच्चों को इकट्ठा कर लिया। लेकिन, हम सब ने पाया कि उसमें ना अंडे थे, ना बच्चे, ना चिड़िया। हम सबको समझाया गया कि चिड़िया के बच्चे जब बड़े हो जाते हैं, उड़ना सीख जाते हैं और अपने अपने घोसले बनाने के लिए निकल जाते हैं। तब, यह बात समझ नहीं आती थी और हम अपने खेल में लग जाते थे। ऐसी ही मेरी बचपन की एक कहानी सुना रही हूं, आत्म संबल की। सिखाया गया था कि अगर कोई तुम्हें मारे बिना कारण, तो उसका जवाब देना पड़ता है और अगर नहीं दिया तो रोती रहोगी।