राह-ए-उल्फत में अपना ठिकाना न आया, मुझे रूठना न आया, तुम्हें मनाना न आया| साज़-ए-जिंदिगी ने सुर ऐसा छेडा, मुझे गाना न आया, तुम्हें गुनगुनाना न आया| मुझे रूठना न आया, तुम्हें मनाना न आया… बच्चों की तरह गिले भी बड़े हो गए, मुझे भुलाना न आया, तुम्हें मिटाना न आया| मुझे रूठना न आया, तुम्हें मनाना न आया… वो घर जिसे तामीर किया था बड़ी शिद्दत से, मुझे बनाना न आया, तुम्हें सजाना न आया| मुझे रूठना न आया, तुम्हें मनाना न आया… वस्ल की रात कटी इसी जुस्तजू में, मुझें उठाना न आया, तुम्हें जगाना न आया| मुझे रूठना न आया, तुम्हें मनाना न आया… तर्क-ए-ताल्लुक में भी कहीं कमी रह गयी, मुझे संभलना न आया, तुम्हें गवाना न आया| मुझे रूठना न आया, तुम्हें मनाना न आया… एक उम्र कटी ऐसे की फिर मुद्दतें हो गयी, मुझे आना न आया, तुम्हें बुलाना न आया| मुझे रूठना न आया, तुम्हें मनाना न आया… लम्हों की दौलत से दोनों महरूम रहे ‘अंकुर’, मुझे चुराना न आया, तुम्हें कमाना न आया| #one#of#my#fab......this one राह-ए-उल्फत में अपना ठिकाना न आया, मुझे रूठना न आया, तुम्हें मनाना न आया| साज़-ए-जिंदिगी ने सुर ऐसा छेडा, मुझे गाना न आया, तुम्हें गुनगुनाना न आया| मुझे रूठना न आया, तुम्हें मनाना न आया…