किंचित, मनुज तुम हो नहीं।। मैं रहा घूरता बरगद को, स्वप्न या अतिरेक था। विचलित हृदय की भावना, मैं ही मूर्ख एक था। तनों से निकलती डालियां, धरा पे फिसलती डालियां, नवसृजित संचार का पर्याय, बिनजल सिसकतीं डालियां। रश्मि किरण मूक झांकते, तपती तली, सुख ताकते। शुष्क सी बंजर धरा पर, अवशेष निज का टालते। एक साख से निर्मित हुआ, विस्तृत न वो किंचित हुआ। स्वाहा स्वप्न अश्रुधार में, तक्त स्वतेज सीमित हुआ। था भ्रम जो पाला कभी, निज स्वार्थ को टाला सभी। निष्प्राण में हो प्राण वास, थी मन मे ये ज्वाला लगी। कालिखों में निज का श्वेत खोया, मानो बंजर धरा पर था रेत बोया। अंकुरित बीज भी निस्तेज सा है, पालक हताश, हर खेत रोया। है मनुज का भी किस्सा यही, जो बोया मिलेगा हिस्सा वही। स्वयं को स्वयं से ही मारता, है स्वार्थ का होना कितना सही। धरा तृप्त जो कर गया, बादल वही तो नेक था। विचलित हृदय की भावना, मैं ही मूर्ख एक था। ©रजनीश "स्वछंद" #NojotoQuote किंचित, मनुज तुम हो नहीं।। मैं रहा घूरता बरगद को, स्वप्न या अतिरेक था। विचलित हृदय की भावना, मैं ही मूर्ख एक था। तनों से निकलती डालियां, धरा पे फिसलती डालियां, नवसृजित संचार का पर्याय,