|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 8
।।श्री हरिः।।
9 - देखे सकल देव
'भगवन! मैं किसकी आराधना करूं!' वेदाध्ययन पूर्ण किया था उस तपस्वी कुमार ने महर्षि भृगु की सेवा में रहकर। महाआथर्वण का वह शिष्य स्वभाव से वीतराग, अत्यन्त तितिक्षु था। उसे गार्हस्थ्य के प्रति अपने चित्त में कोई आकर्षण प्रतीत नहीं हुआ।
'वत्स! तुम स्वयं देखकर निर्णय करो!' आज का युग नहीं था। शिष्य गुरुदेव के समीप गया और उसके कान में एक मन्त्र पढ दिया गया। वह अपने गुरुदेव के सम्प्रदाय मे दीक्षित हो गया। यह कौन सोचे कि उस जीव का भी कुछ अधिकार है। जन्म-जन्मान्तर से चले आते उसमें भी किसी साधना के कुछ संस्कार हो सकते हैं। उन संस्कारों के अनुरूप दीक्षा ही उसके लिये उपयुक्त है। यहां तो स्व-सम्प्रदाय - स्व-शिष्यश्रेणी अभिवर्धन ही एकमात्र अभिप्राय बन गया है आज!