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आती रहती हैं रिश्तों में दरारें... मगर, खुला कहाँ

आती रहती हैं रिश्तों में दरारें... मगर,
खुला कहाँ छोड़ती हूँ मैं आजकल उन्हें, नासूर बनने के लिये,
भर देती अक़्सर वक़्त से,तुम्हारे एहसास से घोली तहरीर से।

ह्म्म्म्म! होती है न एक पल के लिये तकलीफ़ भी बहुत मुझे,
मगर जला देती हूँ दीप उम्मीदों का, तुमसे मिली तक़रीर से।

हाँ! बहुत तीखी होती हैं बातें भी अपने ही इन रिश्तेदारों की, 
मगर देती हूँ सहारा ख़ुद को,तुम्हारे इश्क़ से ढली शहतीर से। 

रोती भी हूँ न मैं अक़्सर,इन्हीं ख़ुदगर्ज़ रिश्तों का नाम लेकर, 
फिर हँसाती भी हूँ मैं ग़म को,मुझमें तुम्हारी खिली तस्वीर से। तक़रीर- speech; 
शहतीर-A large beam supporting the roof 

🎀 Challenge-228 #collabwithकोराकाग़ज़

🎀 यह व्यक्तिगत रचना वाला विषय है।

🎀 कृपया अपनी रचना का Font छोटा रखिए ऐसा करने से वालपेपर खराब नहीं लगता और रचना भी अच्छी दिखती है।
आती रहती हैं रिश्तों में दरारें... मगर,
खुला कहाँ छोड़ती हूँ मैं आजकल उन्हें, नासूर बनने के लिये,
भर देती अक़्सर वक़्त से,तुम्हारे एहसास से घोली तहरीर से।

ह्म्म्म्म! होती है न एक पल के लिये तकलीफ़ भी बहुत मुझे,
मगर जला देती हूँ दीप उम्मीदों का, तुमसे मिली तक़रीर से।

हाँ! बहुत तीखी होती हैं बातें भी अपने ही इन रिश्तेदारों की, 
मगर देती हूँ सहारा ख़ुद को,तुम्हारे इश्क़ से ढली शहतीर से। 

रोती भी हूँ न मैं अक़्सर,इन्हीं ख़ुदगर्ज़ रिश्तों का नाम लेकर, 
फिर हँसाती भी हूँ मैं ग़म को,मुझमें तुम्हारी खिली तस्वीर से। तक़रीर- speech; 
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