घर के लाल।। कलम गुज़ारिश कर बैठी, लिख डालो इन मतवालों पे। सरहद पर तुमने बहुत लिखा, लिख डालो घर के लालों पे। निर्वस्त्र रही वो राह पड़ी, किसको थी खबर और क्या थी पड़ी। आंखों में दया न धर्म दीखा, ना मानव जैसा कर्म दीखा। वो तड़प रही थी पुकार रही, किस्मत में तो बस दुत्कार रही। जिसने भी देखा चला गया, चीख चीख के गला गया। मानुष एक वहाँ से गुजरा था, आंखें नम दुख में मुखड़ा था। हाथ बढ़ा और वस्त्र दिया, मानव का काम सहस्र किया। बहता आंसू जो अविरल था, मन सेवा भाव मे विह्वल था। है सार्थक जीवन उसका, आंसू पोंछे जो गालों से। कलम गुज़ारिश कर बैठी, लिख डालो इन मतवालों पे। कुछ अर्धनग्न बच्चे मेरे, जो चले थे सब आंखें फेरे। पेट पीठ में चिपके थे, मानो वो भूख में सिसके थे। भारत भविष्य लिए हाथ कटोरा, सर पे लादे एक भूख का बोरा। धरती बिछौना गगन ओढ़नी, थक हार गई थी बाल मोरनी। उत्सुक आंखें कुछ पूछ रहीं, दुनिया क्या मेरी सचमूच रही। एक हाथ उठा उनकी ख़ातिर, वो गुणी था न वो था शातिर। गोद लिए उस बालपन को, कर रहा शांत अपने मन को। पेट भरा और ज्ञान दिया, हैं जीवित उन्हें ये भान दिया। वो अपना पराया भेद मिटा, नहीं झेंप रहा वो सवालों से। कलम गुज़ारिश कर बैठी, लिख डालो इन मतवालों पे। ©रजनीश "स्वछंद" घर के लाल।। कलम गुज़ारिश कर बैठी, लिख डालो इन मतवालों पे। सरहद पर तुमने बहुत लिखा, लिख डालो घर के लालों पे। निर्वस्त्र रही वो राह पड़ी,