जलता रहा शहर रात भर लेता रहा सिसकियाँ रात भर कुछ लोग छ्लनी करते रहे सीना कुछ मासूम सहते रहे दर्द रात भर झूठ दर झूठ गूँजता रहा शोर सच ख़ामोशी से देखता रहा रात भर जलता सामान आग में न-काफ़ी था इसलिए ज़हन को भी जलाया रात भर ये क्यूँ हुआ किसलिए हुआ पूरी तरह से कोई वाकिफ न हुआ बस भेड़ों की तरह एक रस्ता अपना लिया और घायल करता रहा इंसान रात भर काश इंसान बन कर मसला समझा होता अपने पैरों को ज़ख्म देने से पहले सोचा होता यूँ शर्मिंदा न होता शहर इंसानो पर यूँ धुआँ धुआँ न होता शहर रात भर जलता शहर