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किस्सा : 1 हम छुटपुट कवि लेखक अक्सर समाजिक बुराइय

किस्सा : 1

हम छुटपुट कवि लेखक अक्सर समाजिक बुराइयों पे लिखते रहे, जो जरूरी है एक उतकृष्ट समाज बनाने के लिए । जब तक लिखा नहीं जाएगा तब तक सोचा नहीं जाएगा और जब तक कुछ सोचा नहीं जाएगा तब तक कुछ बदला नहीं जाएगा । पर आज मै इस छोटे से किस्से को बता रहा हूँ जो शायद कुछ लोगों के लिए आम बात हो सकती है, पर वो किस्सा समाज मे बची कुची कुछ मानवता का एक सर्वश्रेष्ठ दाहरण है और हो सकता है जितनी भी मात्रा मे मानवता हमारे अंदर है उसे भी सक्रिय कर दे ।।

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हम छुटपुट कवि लेखक अक्सर समाजिक बुराइयों पे लिखते रहे, जो जरूरी है एक उतकृष्ट समाज बनाने के लिए । जब तक लिखा नहीं जाएगा तब तक सोचा नहीं जाएगा और जब तक कुछ सोचा नहीं जाएगा तब तक कुछ बदला नहीं जाएगा । पर आज मै इस छोटे से किस्से को बता रहा हूँ जो शायद कुछ लोगों के लिए आम बात हो सकती है, पर वो किस्सा समाज मे बची कुची कुछ मानवता का एक सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है और हो सकता है जितनी भी मात्रा मे मानवता हमारे अंदर है उसे भी सक्रिय कर दे ।

दिल्ली की फितरत मे जल्दी है, कोई इंसान ठहर के 2 मिनट बात भी करे तो आपको उसकी जुबान मे जल्दी- बेचैनी दिख जाएगी । 
मै ठहरा ही था इंतजार मे एक दिन,दिल्ली के बस स्टैंड पे, कभी हाथ पे बंदी घडी देखता तो कभी 200 मीटर दूर उस सुनसान चौराहे को, किसी बस Auto का कुछ पता नहीं, वक्त भी एसा की अंधेरा भी अंधेरे को अंधेरे मे देख कर शरमा जाए । नाइट शिफ्ट के बैट-मैन थे, वक्त पे आॉफिस नहीं पहुंचते तो गरीब की तन्ख्वाह कट जाती और 2 बातें सुनने को मिलती वो अलग,पर मजबूरी का मारा इंसान या तो घड़ी देख सकता है या सुनसान राह ।

दिल्ली इतनी जल्दी वैसे नहीं सोती,पर यह दिल्ली है मेरी जान !  यहाँ कुछ ना कुछ चलता रहता है, कभी आंदोलन खत्म नहीं होते तो कभी बेमौसम दंगे शुरू हो जाते है । एसा ही कोई दिन था वो जब ना Auto ना सरकारी बस प्रभावी रूप से चल रही थी । मामलात इतने संवेदनशील थे कि इस बारे मे बात करने की भी हमारे कार्यालय मे इजाजत नहीं थी , पर एसे माहौल मे भी जाना जरूरी और मेरी दो पहिया वाहन भी "इंसानों" का क्रूर रूप देख कर स्टार्ट होने का नाम नहीं ले रही थी ,जैसे उसने न्यूज़ मे अपनी बिरादरी की जलती मोटरसाइकिल देख ली हो और मारे डर के जाने को तैयार ही नहीं हुई। मेरा office वैसे ज्यादा दूर नहीं था , मेरे किराए के घर से, तो जरा बची रौशनी के सहारे मै उस चौक तक तो पैदल आ गया लेकिन उसके आगे जो एक किलोमीटर बचा था वहाँ पैदल नहीं जाया जा सकता था । राह को कठिन दूरी नहीं,अखबारों की सुर्खियाँ बना रही थी । आए दिन उस सुनसान रोड़ की खबर डोलती फिरती है अखबारों में , कि कभी कोई छुटपुट डॉन छोटा छपरी किसी छुटपुट डॉन बबलू बदमाश को टपका गया, तो कभी कोई बाइकिया हवा की रफ्तार मे आकर , हाथ से मोबाइल ले उडा । मतलब बेरोजगार चोरों,छपरी डॉनों टपोरियों और भटकती आत्माओं की फैवरेट रोड़ थी , दिल्ली पुलिस तैनात भी थी मगर कुल मिला के रोड़ 7-8 किलोमीटर लंबी थी तो एक दो पुलिस की गाडियाँ भी कहाँ बदमाशों के हौसलों के आगे टिक पाती? ।
किस्सा : 1

हम छुटपुट कवि लेखक अक्सर समाजिक बुराइयों पे लिखते रहे, जो जरूरी है एक उतकृष्ट समाज बनाने के लिए । जब तक लिखा नहीं जाएगा तब तक सोचा नहीं जाएगा और जब तक कुछ सोचा नहीं जाएगा तब तक कुछ बदला नहीं जाएगा । पर आज मै इस छोटे से किस्से को बता रहा हूँ जो शायद कुछ लोगों के लिए आम बात हो सकती है, पर वो किस्सा समाज मे बची कुची कुछ मानवता का एक सर्वश्रेष्ठ दाहरण है और हो सकता है जितनी भी मात्रा मे मानवता हमारे अंदर है उसे भी सक्रिय कर दे ।।

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हम छुटपुट कवि लेखक अक्सर समाजिक बुराइयों पे लिखते रहे, जो जरूरी है एक उतकृष्ट समाज बनाने के लिए । जब तक लिखा नहीं जाएगा तब तक सोचा नहीं जाएगा और जब तक कुछ सोचा नहीं जाएगा तब तक कुछ बदला नहीं जाएगा । पर आज मै इस छोटे से किस्से को बता रहा हूँ जो शायद कुछ लोगों के लिए आम बात हो सकती है, पर वो किस्सा समाज मे बची कुची कुछ मानवता का एक सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है और हो सकता है जितनी भी मात्रा मे मानवता हमारे अंदर है उसे भी सक्रिय कर दे ।

दिल्ली की फितरत मे जल्दी है, कोई इंसान ठहर के 2 मिनट बात भी करे तो आपको उसकी जुबान मे जल्दी- बेचैनी दिख जाएगी । 
मै ठहरा ही था इंतजार मे एक दिन,दिल्ली के बस स्टैंड पे, कभी हाथ पे बंदी घडी देखता तो कभी 200 मीटर दूर उस सुनसान चौराहे को, किसी बस Auto का कुछ पता नहीं, वक्त भी एसा की अंधेरा भी अंधेरे को अंधेरे मे देख कर शरमा जाए । नाइट शिफ्ट के बैट-मैन थे, वक्त पे आॉफिस नहीं पहुंचते तो गरीब की तन्ख्वाह कट जाती और 2 बातें सुनने को मिलती वो अलग,पर मजबूरी का मारा इंसान या तो घड़ी देख सकता है या सुनसान राह ।

दिल्ली इतनी जल्दी वैसे नहीं सोती,पर यह दिल्ली है मेरी जान !  यहाँ कुछ ना कुछ चलता रहता है, कभी आंदोलन खत्म नहीं होते तो कभी बेमौसम दंगे शुरू हो जाते है । एसा ही कोई दिन था वो जब ना Auto ना सरकारी बस प्रभावी रूप से चल रही थी । मामलात इतने संवेदनशील थे कि इस बारे मे बात करने की भी हमारे कार्यालय मे इजाजत नहीं थी , पर एसे माहौल मे भी जाना जरूरी और मेरी दो पहिया वाहन भी "इंसानों" का क्रूर रूप देख कर स्टार्ट होने का नाम नहीं ले रही थी ,जैसे उसने न्यूज़ मे अपनी बिरादरी की जलती मोटरसाइकिल देख ली हो और मारे डर के जाने को तैयार ही नहीं हुई। मेरा office वैसे ज्यादा दूर नहीं था , मेरे किराए के घर से, तो जरा बची रौशनी के सहारे मै उस चौक तक तो पैदल आ गया लेकिन उसके आगे जो एक किलोमीटर बचा था वहाँ पैदल नहीं जाया जा सकता था । राह को कठिन दूरी नहीं,अखबारों की सुर्खियाँ बना रही थी । आए दिन उस सुनसान रोड़ की खबर डोलती फिरती है अखबारों में , कि कभी कोई छुटपुट डॉन छोटा छपरी किसी छुटपुट डॉन बबलू बदमाश को टपका गया, तो कभी कोई बाइकिया हवा की रफ्तार मे आकर , हाथ से मोबाइल ले उडा । मतलब बेरोजगार चोरों,छपरी डॉनों टपोरियों और भटकती आत्माओं की फैवरेट रोड़ थी , दिल्ली पुलिस तैनात भी थी मगर कुल मिला के रोड़ 7-8 किलोमीटर लंबी थी तो एक दो पुलिस की गाडियाँ भी कहाँ बदमाशों के हौसलों के आगे टिक पाती? ।
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Namit Raturi

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