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vinayksharma7260
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drsharmaofficial

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drsharmaofficial

दीवारों में, गलियों में
गगन टीले पर रेंगती 
कुछ दर्जन भर दरवाजों के कोणों में
या किन्ही जालों में अटकी

सौवें साल के किसी अकादमी में
या मेघों के निकट
सूखे कंठ की देहरी पर

कुम्हलाती अमलतास फूल गुच्छों में
या देवदार हिममय उच्चे शिखरों पर

....

नीली स्फटिक धरती पर
झरती हुई शरद की बिंदू सी
एक चाँद कलाएँ दरसाती
या मुदित-मोहित किन्ही देह - धरा चर्म की सीमाओं पर

...
श्वास - उदान - अपान काष्ठ 
अनंत - अभंग - अनंग प्रेम
मंत्र मूर्त  - भूर्ज पत्र - बाकी सब मूक भाष

© ये मेरी ओस - प्रेम - देह सकल श्रुति सार
 #diary #life #शरदपूर्णिमा #संवाद  #october #feels #backspace
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drsharmaofficial

'आशिक़ी' पानी के रास्तों सी है
जिनमें शामिल होना और बहना
मौन संसृति के उस सौंदर्य का हिस्सा है
जहाँ नयनो में 'नयन-नक़्श वाली' 
आषाढ़ की हर बरस
नभ की भुजाओं से 
सजल तारे छलछलाए लाती है
 जल में नही, प्रेम में

जल में नही, प्रेम में

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काव्य के
स्नेह-सिक्त होने पर 
मंगल, चन्द्रमा और चन्द्रबिन्दु ....

समूचे ब्रह्मांड के नेत्रों में 
किसी कवि के पास 
पृथ्वी के सादे कागज़ पर 
'नायिका' के सौंदर्य का नाद है

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हार गए इंद्र, हार गए देव है 
आज रात देखों तुम ये अहंकार के अवतार है… 
ये अख़बार की सुर्ख़ियों में
मृत्यु से शाश्वत अंधकार  है 
बचाकर रखना अपने धैर्य को
पारिजात की खुशबुओं में यहाँ बदलते व्याकरण के सार है

कही टहनियों की भीड़ में अजकर्ण का भेष है
है चिर अराति सामने जो मांगता
 कवच-कुंडल विरोचन समान है
कितना कठिन है तुम्हे शब्दों में समेटना
जैसे धरा पर पर्ण का परित्याग

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रोपती हुई धान, और
आषाढ़ की पहली बारिश

ये दो क्रियाऐ - विशेषण थी

एक सुन्दर संवाद और तुम्हारे स्पर्श होते अधर के मध्य
 #प्रेमरंग #परिकल्पना #साहिल #yqquotes
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बड़े-बड़े नैन देखै प्रिय प्रीतम बसंत चहुँ रंग
नैनन झलकै सागर जैसे अधर चुवै बिंब रस

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drsharmaofficial

छुटे बादलों की छांव, दरख्तों का ये साया 
'न' पतझर पाए इश्क़, न भीग पाए ये काया
 सरक आई धूप क्षितिज के बन्द होठों से

सरक आई धूप क्षितिज के बन्द होठों से

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drsharmaofficial


 
"यहाँ बस आवाजों का बोझ ढोया जाता हैं"

शायद नहीं!

"रिक्तता यहाँ भुने चने के आवरण की तरह
 ________   बोलते बोलते चुप हो जाती हैं" शब्दों के खेल में.....

शब्दों के खेल में.....

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बिखरता है इश्क़ मुसलसल, ऐ आशिक़ी! ज़लज़ले से
'हक़ यू भी अदा करतें, एक जंग थी हमारी खुद से भी"



मक़तल ए वक़्त

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ये बारिश 
ये आँधी 
ये फड़कती खिड़कीया
बरजस्ता कुछ मुरझाए-से 'हम'

लिखतें है सुर्ख़ किसी मेज़ पर 
क्या दास्तां, क्या सुख़न 
क्या तन्हाई के आलम 'हम' 1

पानी की अदा
पानी की बग़ावत 
हालात कश्तियों के मारे 'हम'

नाख़ुदा' कैसी सन्नाटों की दीवारें
न कोई दस्तक न कोई आहट
फ़क़त रेत पर लिखे कुछ'हमसाये' से 'हम'

आती होंगी 'तलातुम'
किसको दिखाने निकले 'हम'
बढ़ता जाता है दामाने-तूफा
जख्मे-दिल की हद कितनी लांघे 'हम'

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