जिसे देखो मुँह छिपाए बैठे है
असली चेहरे पे मुखोटा चढ़ाए बैठे है
ये भी वक़्त की कसौटी है, पर पार जाना है मुझे
वो समन्दर में आग लगाए बैठे है
ज़मीर सो चुका है अब फर्क नही पड़ता किसी बात से , जैसे आँख का पानी मर चुका हो
पर फिर भी मेरी आँख से आंख मिलाये बैठे है,
कटार सी लगती है उनकी ये हँसी मुझको
जिसे देखो मुँह छिपाए बैठे है
असली चेहरे पे मुखोटा चढ़ाए बैठे है
ये भी वक़्त की कसौटी है, पर पार जाना है मुझे
वो समन्दर में आग लगाए बैठे है
ज़मीर सो चुका है अब फर्क नही पड़ता किसी बात से , जैसे आँख का पानी मर चुका हो
पर फिर भी मेरी आँख से आंख मिलाये बैठे है,
कटार सी लगती है उनकी ये हँसी मुझको
Arun Kumar
Arun Kumar
रस्म-ऐ-शिरकत थी तो चले आये थे
मजबूरी को तरफदारी का नाम ना दें।
"अरुण कुमार"
रस्म-ऐ-शिरकत थी तो चले आये थे
मजबूरी को तरफदारी का नाम ना दें।
"अरुण कुमार"
Arun Kumar
जाते जाते यूँ करना ज़नाब
बस एक बार पलट के देखते चले जाना
तुम्हे ख़ुद पर गुमाँ रहे तो हम भी खुशफ़हमी में रहे।
"अरुण कुमार"
जाते जाते यूँ करना ज़नाब
बस एक बार पलट के देखते चले जाना
तुम्हे ख़ुद पर गुमाँ रहे तो हम भी खुशफ़हमी में रहे।
"अरुण कुमार"