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princegarva2384
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Jiya Wajil khan

A Dark Urdu Gazal Writer...

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Jiya Wajil khan

ग़ज़ल - 1222 1222 2222 1222 2
हमारी   जात   को   इतनी  भी   कोई  हम-नवाई   ना  दे
मियाँ   गर   को'ई पत्थर   गिर  जाये  तो   सु'नाई ना   दे

तिरी  आँ'खों  का  कोई   इक़  जादू  टोना  नही है राहत
मैं  तुमको गर   जरा  भी देखूँ तो फिर कुछ दिखाई ना दे

ये  किसने कह  दिया  है   तुमको  मा'तम है  हमारे दर में
ये  किस'ने  कह  दिया  कोई  मुझको  इक़  आश्नाई ना दे 

हमें  कोई जहर  का जाईका  ले   लेने  दो  जा'हिल  कुछ
मिरी  माँ  से  कहो, कुछ दिन मुझको  औ' ये  दवाई ना दे

मुहब्बत    हार'ने  वालों   का  कोई   भी  नही होता  दाग़
मुझे  कोई  इसी  आ'लम  से   अब  दिनभर  रिहाई ना दे

हुआ  क्या है  मिरी  साँसें  फिरसे चलने लगी है हामिल
रे  जाहिल  कोई  आ'दम  हमको इतनी  भी दुहाई ना दे
 
जला दी जाएगी हर वो तस्वीर जो तुम'सी दिखती है याँ
मिरे  हाथों  कोई  इस  घर की  चाबी यक   पेशवाई ना दे

हज़ारों के   अला'मत फिर पेशानी  पे दिखे थे  इक़ दिन
जिया कोई   मुहब्बत  में चलकर  इक़ ना-रसाई   ना  दे

©Jiya Wajil khan #OctoberCreator #जिया
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Jiya Wajil khan

ग़ज़ल - 2122 2122 2222 222
बैठी  रहती   हूँ   मग़र  इक़  आजारी  खल  जाती  है
अब   मिरे  हाथों  से अम्मी   हर  रोटी  जल  जाती है

तुम   कबसे     बैठे  हो   चा'हत  लेकर   इस  कूचे  में
दाग़   बैठे   रहने से   अब  बी'मा'री   पल   जाती   है 

मैंने   देखा  है  मुहब्बत   में  पड़'कर   अर'सों   पहले
इस  मुहब्बत में रजा  हर   यक  हसरत  ढल जाती है

ये  नही  की  कोई  मुझ'को  अप'ने   पहलू  में  रख  ले
माँ  कहाँ  हो  तुम,  मिरे  सिर की चो'टी खुल जाती है

कोई   सहरा   अब   तिरी  तस्वीरें  लिखता  है  मुझपे
अब  याँ  कोई  ज़िन्दगी, जो   बेवजहा   चल  जाती  है

इक़  दो  पर्दे  फिर  ग़ज़ल की चौखट पर रखते है हम
कल  सुना  था  इक़  हवा है,  फ़नकारी  मल  जाती है

©Jiya Wajil khan #OctoberCreator  #जिया
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Jiya Wajil khan

ग़ज़ल- 2122 2122 2122 2122 2

इतने  फ़ाजिल  है मगर  फिर  कुछ  सदायें मार  देती है 
दाग़  हम  कुछ काफि'रों  को अब    दुआयें  मार देती  है 

उस   दरीचे  की  गरेबाँ  कैद है  बस इक़  हिफ़ा'जत  में
अब  मिरे  इस  घर को कुछ क़ा'तिल हवायें मार देती है 

तुम   बड़े शायर नही  लगते बता'ओ  कौन   हो  तुम  याँ
रे   मियाँ   अंजान    लोगों  को   बलायें   -मार   देती  है

कोई  बीमारी  बड़ी    कब  थी मुहब्बत की न'जऱ में यार
कम्बख्त  इक़  इस   मुहब्बत   में   दवायें   मार  देती  है 

कुछ दिनों  हम  दश्त  की छांवों  में रहना चाहते है अब
जाने  किसने   ये  कहा   है  की   फिजायें  मार  देती है 

अहद टूटा, मर नही जाऊंगा शिक'वा  मत करो जाहिल
आद'मी  को  इन   दिनों  ज्यादा  वफा'यें  मार  देती   है 

पीना पड़ता  है जो  मिल'ता है  जहर की उन दुकानों से
आजकल  इस  शहर   बे-मत'लब  रजायें  मार  देती  है

रंग उड़ता भी कहाँ है इस ग़ज़ल का फिर जिया वाजिल
ये  बुरा  है  हाथों  को  अब  कुछ  हिना'यें मार   देती  है

©Jiya Wajil khan #जिया
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Jiya Wajil khan

ग़ज़ल - 2122 2122 1221 2212

देर   तक   ठहरे   मिज़ाज-ए-मुदारात   इस   कूचे   में
आ रहे   है  अब  तिरे   कुछ   ख़यालात  इस  कूचे  में
 
हमको  ना  दीजो  कोई   गर्द जह'मत  की वाइज  मिरे
हो  गया  हूँ   यक  ब-कैफ़ी-ए-हालात   इस   कूचे   में

तुम   नही  कुरआन   में   बे-सदा   चीखने   वाले   गर
मत  करो  जाया  ये  वक़्त-ए-मुनाजात   इस   कूचे  में

अपने  सब  अहद-ए-वफ़ा  लौटा  दूँगा  तिरे  दर  कभी
जान  ले   सक'ती   है   कोई  मुला'क़ात   इस  कूचे  में

इस मुहब्बत  के   शगूफे   जिया'दा   नही   चलते दाग़
यार   रह'ने   दो   तिरे   सब  इशा'रात    इस  कूचे   में

याँ ये  किसका  खूँ  पड़ा  है  जमीं की  दरारों  में  फिर
कौन   जाहिल  कर  रहा  था   करा'मात  इस  कूचे  में

तुम वक़ा'लत  भी  पढ़े  हो  मगर  चुप ही  रहना जफ़र
इश्क़  के   दामन   मिरे  पाँव   कोई   हिना    से    कटे

रो   रही  है   अब   मिरी   कोई  बा'रात   इस   कूचे  में
अब   नही   मिलती तला'फ़ी-ए-मा'फ़ात  इस  कूचे  में

बे-दिली का शहर  फिर ख़ाक-पत्थर दे सकता है  बस
अब  बड़ा  नुक़'सान   देंगे  ये  हा'जात   इस   कूचे   में

हमने  भी   इक़ दो  ग़ज़ल अप'ने  हाथों रखी  है  जिया
कुछ   दिनों   से   हो  रहा  है, जो  है'यात  इस  कूचे  में

©Jiya Wajil khan #जिया
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Jiya Wajil khan

ग़ज़ल - 2122 2122 2212 1222

कोई   उलफ़त  में  मरूँगा   पर   इक़   दुआ   नही   लूंगा
मैं    किसी  यक  शख्स  की  अब  कोई  हया  नही  लूंगा

वो  बड़े  घर  की   कोई   शह'जा'दी  है   तो  रहे फिर  वो
यार    मैं   इससे   जियासा   अब   ये   बला   नही   लूंगा

देखो   कितना   खून   टप'का है कल  मिरी  जबीं  से  याँ
मैं    कभी    इन   हा'थों   में  को'ई   आयना   नही   लूंगा

तू   कभी  आया  नही   मुझको   देखने  भी  याँ    ताबिश
अब    मुझे    कोई    ज'हर   दे  दो, मैं   दवा   नही   लूंगा

सोच'ती   है   आँधियाँ   भी    दी'पक   बुझाने   से   पहले
मैं   बड़ा     ख़ुद-ग़र्ज   हूँ,  मैं  दी'पक    नया   नही   लूंगा

मुझसे  तो  फिर   इश्क  करने  की  शर्त भी  यही  है  इक़
मैं  तिरी   कोई   जबाँ   फिर   अहद-ए-वफ़ा   नही   लूंगा

कुछ   दिनों पहले ही कोई  घर'बार  लुटा  है  उस ज़ा'निब
अब  जमीं पर   रह   लूंगा    उस  ज़ानिब  मकाँ नही लूंगा

ये     कलेजा    कांपता   है   कोई     ग़ज़ल    सुनाने   में
रे   जिया  शा'यर   हूँ, दो  कौ'ड़ी    के    सिवा  नही  लूंगा

©Jiya Wajil khan #जिया
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Jiya Wajil khan

ग़ज़ल - 2212 2122 2221 222

होकर   के   तन्हा   कहीं   पर    बे-तदबीर   बैठा    हूँ
मैं  किसका  क़ातिल  हूँ  जो  फिर पा'  जंजीर बैठा  हूँ

तुम  तो  मुहब्बत के  सहरा  हो  तुम-से  कहें  भी  क्या
मैं  कम्बख्त  हूँ  जो   यक   प्यासा  नखचीर   बैठा   हूँ 

मुझ'को  मिरी   मौत   से  कोई  शिक'वा  नही  है  दाग़
मैं   वैसे   भी   कब'से  यक  ज़ब्त-ए-तस्वीर   बैठा   हूँ

वो आइनें   फिर   उसी   शह'जादी   के  शहर   निकले
जिन   आइनों   में    रजा,  मैं    दिल-गी'र    बैठा     हूँ

अब  बद्दुआ  मत  दो  वाइज, मर'ने  वाला  हूँ   मैं  अब
मैं  अब   तिरे  दर   में   गिरफ्त-ए-शम'शीर   बैठा    हूँ

कोई  नज़र  मुझ'पे  भी   रख दो   जायगा  क्या   फिर
मैं   कबसे   कोई    मुसीबत-ओ-तक़बीर   में  बैठा   हूँ

सब  कुछ  मिरे हिस्से  का  खाते  हो तुम   मियाँ  है'दर
हैदर  मैं   हूँ    की    कोई   फूटी   तक़दीर    बैठा    हूँ

©Jiya Wajil khan #जिया
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Jiya Wajil khan

ग़ज़ल - 2122 2122 2122 1212

उलझती   गिरती   रही   गर  जा'वे'दानी   हलाक   में
ये  मुहब्बत   हो  गयी  फिर  सर'गि'रानी   हलाक   में

आगे   चलकर  हमसे  भी  मावरा  हो  तो  क्या  हुआ
कब    ठहरता    है   मियाँ   कोई   पानी   हलाक   में

बारिशें सहराओं  तक  आने  में  मर  जाती  है  फ़क़त
और  तू    कर'ने    लगा   है   बाग'बानी    हलाक   में

कित'ने खूँ-तर लगते  है फिर  इश्क में पड़ने वाले लोग
गालिबन  यक  बस   यही  है  हर  मआनी  हलाक  में

दाग़  कल  कुछ   दोस्तों  से  फिर  हमारी   नही   बनी
यार   सब   करने  लगे   है   खुश-ब'या'नी   हलाक  में

अब तिरी इक़  शाम  मुझको  भी  उधारी  पे  देदो  बस
काटती   है    मुझको    कोई    बे-ज़बानी   हलाक   में

लड़कियों  तुम इश्क कर  लो  मुझसे  मरने  लगा  हूँ  मैं
आजकल   बढ़ने   लगी   है   खूँ-फ़िशानी   हलाक   में

आखिरी  मर'घट   तिरी  कोई  ग़ज़ल  पर  मिला  जिया 
हर   जखीरा   हो   गया   फिर   शादमानी   हलाक   में

©Jiya Wajil khan #जिया #ग़ज़ल
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Jiya Wajil khan

ग़ज़ल - 2122 2122 2212 2122
कित'ने नखरे कर'ती  है  अब ये लड़कियाँ  राज  घर  की
यार  मैं  फिर  देखता  हूँ  बस  खिड़कियाँ   राज  घर  की

तुम  कोई   यक  अप्सरा  हो  भटकी   हुई   कूचे   में  याँ
वरना  कब  दिख'ती है ग़ालिब ये तितलियाँ  राज  घर की

इक़   मुहब्बत   ही   हमारी    पह'चान    होने    लगी   है
मार  देगी  मुझ'को  चाहत,   मन-मर्जियाँ   राज   घर  की

दाग़    इस्तीफा   देके  आया   हूँ  मुआ'फ़ी   दो    मुझको
यार   कब   तक  सहन   करता  सर्दियाँ   राज   घर   की

चाँद   की     हूरे     सफ़ा'क़त   के  आइनें    पहनती    है 
हाए!  यक  वो   धूप  धोती   है   साड़ियाँ   राज   घर  की

देखो  हज़रत   सम्त   रंगों   का   आसमाँ  हो   चला फिर
क्या पतंगें है  हवा, क्या फिर  चरखियाँ  है  राज  घर  की

कोई  हम'से  भी  मुहब्बत करता  था  उस  सम्त  का  तब
मैं   यहाँ  ठुक'रा   रहा   हूँ  अब  अर्जियाँ   राज   घर  की

अप'ने  लफ़्ज़ों   को अना  कोई  भी  नही   देगा  अब  याँ
रे  ज़िया अब  ये  ग़ज़ल  है  बस  शोखियाँ  राज   घर  की

©Jiya Wajil khan #ग़ज़ल #जिया
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Jiya Wajil khan

ग़ज़ल - 2122 1222 2122 1222

फिर  बड़ी  ज़ुल्मतों   में  था  हे  रिफ़ाक़त  ख़ुदा-हाफ़िज़
अब  तिरे   शहर   में   करता  हूँ  सदाक़त  खुदा-हाफ़िज़

ये   नही    की   हमा'री   आंखों   का  कोई   नजारा   है
यार   सब  कुछ  याँ  तुम्हारा  है  नजारत   ख़ुदा-हाफ़िज़

कितने  पत्थर   तिरी  ज़ा'निब  से  पड़े  है  मिरे  दिल को
अब मुबारक  हो  तुमको  हर   बादशाहत  खुदा-हाफ़िज़

इक़  मुहब्बत  में  जाहिल-पन  को कोई   ठौर  कबसे थी
आज   देखो   मिरी  जाँ   हर-सू  बगा'वत  ख़ुदा-हाफ़िज़

खूब  ताबीज      पहनाये   थी   मिरी  माँ  ने  बचपन  में
फिर   तिरी   क्या लगी  है  कोई  बसा'रत, खुदा-हाफ़िज़ 

मुझको  इक़  बुत-शिकन  का  दर्जा  दे  दीजे मिरे वाइज
याँ  नही   होती   क़ामिल   कोई   इबादत  खुदा-हाफ़िज़

लाशें   इसरत   की आं'धी  में बस  क़फ़न  ढूंढ़ती है रोज
कम्बख्त  को'ई   नश्तर   है  ये  सिसा'यत  खुदा-हाफ़िज़

अब   मुकाम-ए-जिया   कोई   हादसे  का   पता   है  याँ
अपने  घर को  चले  जाओ हे  ख़िलाफ़त  खुदा-हाफ़िज़

©Jiya Wajil khan इक़ ग़ज़ल... खुदा हाफ़िज़

#जिया

इक़ ग़ज़ल... खुदा हाफ़िज़ #जिया

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Jiya Wajil khan

ग़ज़ल

वज़्न - 1222 2122 1222 122

नही है  अब इश्क, पर  हूँ  निगहबाँ  से  परेशाँ
जरा  देखो तो  मियाँ,  सब है  इम्काँ  से  परेशाँ

मुसाहिब कहते हो तो शहर से रुख्सत हो जाओ
याँ  तो  हिन्दू  से   परेशाँ,   मुसलमाँ  से  परेशाँ

अना के  इस  कटघरे  को जलाया  है किसी ने
यहाँ  इक़  मैं  हूँ  जो  है अपने  ईमाँ  से  परेशाँ

ले देकर कोई ज़हर ही मिला था मुझको दर पर
ख'रा'बा'तों   के  शराबी  है  दरबाँ   से   परेशाँ

दिलाशा कोई ग़ज़ल को दिया है कल जिया हमने
हमी  से  सब  कुछ  परेशाँ,  तो  दौराँ  से  परेशाँ

©Jiya Wajil khan इक़ ग़ज़ल... परेशाँ

#जिया

इक़ ग़ज़ल... परेशाँ #जिया

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