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करन सिंह परिहार

गीतकार

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करन सिंह परिहार

प्यासे होंठों से पूछो पानी की कीमत।
आँखों से पूछो सुरमेदानी की कीमत।
धोखा खाये हुए प्यार से जाकर पूछो।
यादों  में  बर्बाद  जवानी  की  कीमत।
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©करन सिंह परिहार
  #Sukha
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करन सिंह परिहार

याद में भाई बहन तुम्हारी, रोती है अँगना।
रोती है अँगना।

यादें सब पीहर की लेकर, मता के दिल में गम देकर।
आयी थी मैं खुशियाँ पाने, साजन के घर सपने लेकर।
लेकिन इस छलिए घर की मैं, समझ सकी न रँगना।
समझ सकी न रँगना।
याद------------------(1)

सोंचा क्या था क्या घर पाया, पैसा लालच किया पराया।
सास ससुर की बातें छोड़ो, पति ने भी मुझको तड़पाया।
ननद रोज है ताने देती, लायी क्या गहना।
लायी क्या गहना।
याद------------------(2)

रक्षाबंधन पर्व ये' पावन, आया खुशियाँ ले मनभावन।
राखी के इस प्रेम सूत से, झूम उठा हर घर में सावन।
लेकिन मेरे भाग्य में' केवल, आँसू का बहना।
आँसू का बहना।
याद-----------------(3)

आज  देश  में  हाहाकारी ,  बढे  दुष्ट  खल अत्याचारी।
जगह जगह में फैला मातम, चीख रही चिथडों में नारी।
रोज दहेजों में जलती हैं, बेटी औ बहना।
बेटी औ बहना।
याद -------------------(4)

कहें करन ऐ  दुनियावालो ,  मात  बहन की लाज बचालो।
कनक चमक में क्यों भूले हो, अपना भी कुछ कर्म बनालो।
प्रेम भाव की पढकर पोथी, बंद करो लड़ना।
बंद करो लड़ना।
याद----------------(5)
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©करन सिंह परिहार
  #rakshabandhan
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करन सिंह परिहार

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आज देश का अहम मुद्दा स्त्री विमर्श का है। पुरुष वर्चस्ववादी समाज में आज भी स्त्री भोगवाद की वस्तु मानी जाती है। पुरुष वर्चस्ववादी समाज में नारी की स्वछंदता एक मुठ्ठी में कैद होकर रह गयी है।उसे बाहरी जिन्दगी की आबोहवा से दूर रखने का षडयंत्र आज भी ग्रामीण क्षेत्र में लगभग जारी है।स्त्री ज्यादातर अपने लोगों के द्वारा ही प्रताड़ित और उत्पीड़ित होती है। चाहे वह बेटी के जन्म पर परिवार में छाया हुआ  मातम  हो या सामूहिक बलात्कार में दर दर तड़पती स्त्री की आबरु हो।वास्तव में भारतीय समाज आज भी रूढिवादी परंपराओं से अभी तक नहीं उभर पाया है। महानगरों में भले ही ये परंपराएं विलुप्त हो गई हों पर ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी इसका असर देखने को मिलता है।जिसके कारण इन क्षेत्रों का विकास में बाधाएं उत्पन्न हो रही हैं।एक तरफ जहाँ सभी को समान अधिकार और सभ्य तथा आधुनिक समाज का दावा किया जाता है तो वहीं दूसरी ओर बेटों के जन्म पर ढोल और सहनाइयाँ बजती है तथा बेटी के जन्म पर घर में मातम छा जाता है।वहीं दूसरी ओर रोज पुरुष वर्चस्ववादी समाज में कोई न कोई स्त्री की इज्ज़त तार तार की जाती है और उन्हें न्याय नहीं मिलता गुनहगार विंदास घूमते हैं।ऐसी सामाजिक विद्रूपताओं और नारी के प्रति रूढिवादी परंपरागत सोंच को आज हर व्यक्ति के मस्तिष्क से हटाने की आवश्यकता है। 
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©करन सिंह परिहार
  #womanequality

womanequality

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करन सिंह परिहार

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करन सिंह परिहार

दूर गगन के क्षितिज बिन्दु तक, आओ मिलकर ध्वज फहराएं।
वीर  सपूतों  की  धरती पर, स्वतंत्रता का दिवस मनाएं।

घनें  अँधेरों  की  छाती में, सूर्य किरण की कीलें ठोकें।
भाग्य भरोसे बैठे मन को ,कर्मठ युग में चलकर झोकें।
अलसायी आँखों में घुसकर, लक्ष्य प्राप्ति का पथ दिखलाएं।
स्वतंत्रता---------------------(१)

हम नव युग के भावी भारत, अनुशीलन से नहीं डरेंगे।
स्वाध्यायों के हर पृष्ठों  को,पलभर में कंठस्थ करेंगे।
मेहनत और लगन से पढ़कर,चलो नया इतिहास रचाएं।
स्वतंत्रता---------------------(२)

सीमाओं पर ड़टे हुए उन,वीर जवानों से कुछ सीखें।
सबकी भूख मिटाने वाले,धीर किसानों से कुछ सीखें।
इनके पद चिन्हों की माटी,से हम अपना भाल सजाएं।
स्वतंत्रता---------------------(३)

बटुकेश्वर, आजाद, भगत की,भूल न जाएं हम कुर्बानी।
लक्ष्मी और महाराणा के,पराक्रमों की अमर कहानी।
भारत माँ के अमर शहीदों,की समाधि पर दीप जलाएं।
स्वतंत्रता-----------------(४)

©करन सिंह परिहार
  #IndependenceDay  RJ राहुल द्विवेदी 'स्मित' मनोज मानव सुनील 'विचित्र' Monika दिनेश कुशभुवनपुरी  अmit कोठारी "राही" सूर्यप्रताप सिंह चौहान (स्वतंत्र) Dheeraj Srivastava Kumar Shaurya संवेदिता "सायबा"

#IndependenceDay RJ राहुल द्विवेदी 'स्मित' मनोज मानव सुनील 'विचित्र' Monika दिनेश कुशभुवनपुरी अmit कोठारी "राही" सूर्यप्रताप सिंह चौहान (स्वतंत्र) Dheeraj Srivastava Kumar Shaurya संवेदिता "सायबा" #कविता

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करन सिंह परिहार

कौन जीतेगा समर में सोंचती संवेदनाएँ,
मृत्यु की चिंगारियों को जानता कोई नहीं है।
थरथराते दीप बुझने को चले हैं,
अब उजाले की व्यथा किसको सुनाऊंँ।
हो गयी हैं मौन सड़कें भी यहाँ पर,
अब अँधेरे की कथा किसको सुनाऊँ।
टिमटिमाते जुगनुओं का अर्थ कब तक मैं लिखूँगा,
कीट की लाचारियों को जानता कोई नहीं है।

©Karan
  #khoj
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करन सिंह परिहार

प्रतिरोधों के पृष्ठ हजारों लाक्षागृह में भस्म हो गए,
फिर भी अंतस की पीड़ाएं लोक सभाओं में उलझी हैं।


महिमामंडित धर्म सभा में जल को खार किया जाता है।
मतभेदों  के  शब्द बाण से  मन  पर वार किया जाता है।
रिक्त उदर की अंतडियों की जठर अग्नि अंगार हो गई,
फिर भी भूखों की आहुतियाँ शोक सभाओं में उलझी हैं।

©Karan
  #Raftaar


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