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gauravkaushik1758
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Dr. Gaurav Kaushik

I m a simple, soft hearted man. Doctor by profession and poet by passion. I m not a professional poet, I only write what my heart says.

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Dr. Gaurav Kaushik

आओ आज लम्हा-2 समेटते हैं।
समेटते हैं कुछ भूली बिसरी यादों को, 
कुछ खाई कसमों को, कुछ किये वादों को।
समेटते हैं कुछ प्यार भरी बातों को,
कुछ आंसुओं में डूबी उन अंधेरी रातों को।
आओ आज लम्हा-2 समेटते हैं।

समेटते हैं बचपन के उन प्यारे दिनों को,
चिंता और फिक्र रहित उन मस्ती के क्षणों को।
समेटते हैं अपने उन सब यारों को,
जो हमारे अपने हुआ करते थे उन चांद और तारों को।
आओ आज लम्हा-2 समेटते हैं।

समेटते हैं लबों की उस मुस्कान को
जो खो गयी है कहीं दुनिया की भीड़ में,
ढूंढते हैं उन बिखरे ख्वाबों को
जो बह गए हैं कहीं, आंखों के नीर में।
तो आओ आज फिर उन सपनों को पलकों में लपेटते हैं।
आओ आज लम्हा-2 समेटते हैं।

आओ आज तलाशें उस ज़िन्दगी को
जो सच में हम जिया करते थे।
क्योंकि आज हम जी नहीं रहे,
बल्कि ज़िन्दगी हम पर सितम कर रही है।
सुबह-शाम के इस फेर में,
साँसे खुद को दफन कर रही है।
तो इससे पहले की साँसों की गिनती खत्म हो जाए,
हम सोचते ही रहें और सब भस्म हो जाए।
आओ आज फिर ज़िन्दगी के पिछले पन्नों को टटोलते हैं,
कुछ अपनों की सुनते हैं, कुछ अपनी भी बोलते हैं। 
आओ जीवन में थोड़ा पीछे लौटते हैं।  
आओ आज लम्हा-2 समेटते हैं।।

                                        डॉ. गौरव कौशिक आओ आज लम्हा-2 समेटते हैं।
#CalmingNature

आओ आज लम्हा-2 समेटते हैं। #CalmingNature #कविता

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Dr. Gaurav Kaushik

"पुरुष की व्यथा"
 - एक आम आदमी के दिल की बात
   भाग -२

#Broken

"पुरुष की व्यथा" - एक आम आदमी के दिल की बात भाग -२ #Broken #कविता #nojotovideo

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Dr. Gaurav Kaushik

"पुरुष की व्यथा"
- एक आम आदमी के दिल की बात
#Broken

"पुरुष की व्यथा" - एक आम आदमी के दिल की बात #Broken #कविता #nojotovideo

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Dr. Gaurav Kaushik

जीवन साथी- एक अनोखा रिश्ता

जीवन साथी- एक अनोखा रिश्ता #कविता #nojotovideo

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Dr. Gaurav Kaushik

पुरुष की व्यथा

मैं मनु से उपजा मानव हूं,
नारायण का नर मैं हूँ। 
मैं आदम से हुआ आदमी, 
हर दर्द झेलता मर्द भी हूँ। 
जो स्त्री को पूरित करता है,
मैं ब्रह्मा का वो सृजन हूँ।
हां क्योंकि मैं पुरुष हूँ।।

अक्सर सुनते हैं ये पुरुषों का समाज है,
पर सच में ऐसा दिखता नही कहीं आज है।
में ज़िम्मेदारी के बोझ में दबा हूँ,
परिवार की अपेक्षाओं से लदा हूँ।
मैं मां बाप की आशाओं का नूर हूँ,
पत्नी की मांग का सिंदूर हूँ।
मैं बच्चों के नन्हे हाथों में खेलता खिलौना हूँ, 
सबकी पहाड़ जैसी उम्मीदों के आगे बौना हूँ। 
हां क्योंकि मैं पुरुष हूँ।।

मैं मन की बातें मन में रख, ऊपर से यूं मुस्काता हूँ,
अपने सपनों का गला घोंट बस यूं ही जीता जाता हूँ।
हो विह्वल मन या तपता तन, या हृदय भी करता हो क्रंदन,
दिल चाहे अपना टूटा हो, या कोई सपना छूटा हो।
पर दिल पे पत्थर रख कर मैं, खुद को मजबूत दिखाता हूँ। 
आंखों के अश्रु पीता हूँ और पत्थर दिल कहलाता हूँ।
हां क्योंकि मैं पुरुष हूँ।।

मैं थकता तो हूँ, पर रूक नही सकता,
मुश्किलों के पहाड़ के आगे झुक नही सकता।
घर के दायित्वो के साथ बाहर के फ़र्ज़ निभाता हूँ,
करूं खून पसीना एक सदा, दर-2 की ठोकर खाता हूं।
रोज़ी रोटी के जुगाड़ में अपना सब ज़ोर लगाता हूँ,
पर मोल नही होता मेहनत का, बस रुपयों में तोला जाता हूँ।
हां क्योंकि मैं पुरुष हूँ।।

माँ की ममता दिखती है, पर पिता का प्यार नही दिखता।
पत्नी का त्याग नज़र आता, पर पति का किरदार नही दिखता।
मुट्ठी भर हैवानों के कारण, घृणित नज़र मैं पाता हूँ। 
स्त्री-पुरुष के तराजू में, गलत मैं ही तोला जाता हूँ।
कोई सरोकार नही किसी को, क्या मेरी नज़र क्या चाह है।
सही गलत का कौन सोचे, सबकी नज़र में पुरुष का ही तो गुनाह है।
इतनी नफरत सहता हूँ, पर ना किसी से रूष्ट हूँ।
हां क्योंकि मैं पुरुष हूँ।।

एक अनजानी स्त्री को अपने जीवन में बसाता हूँ,
उस पर अपना सर्वस्व सौंप फिर उसका ही हो जाता हूँ।
पूरी दुनिया से लड़कर मैं नारी सम्मान बचाता हूँ,
माता-पिता ,पत्नी, बच्चों में सामञ्जस्य बिठाता हूँ।
पत्नी की इच्छा, मां के सपने, बच्चों की ख्वाइश, पिता का गुस्सा
पर ना जाने क्यों इन सब बाटों मे पिसता जाता हूँ।
हां क्योंकि मैं पुरुष हूँ।।

फूट-2 कर रोना चाहता हूँ, पर रो मैं सकता नही।
सोचता हूँ दिल खोलूं, पर कुछ कह मैं सकता नही।
पर दिल में उमड़ती आंधी को, सह भी मैं सकता नही।
कैसे बताऊं दुनिया को, मैं पत्थर का कोई पुतला नही।
मैं हाड़- मांस से बना इंसान, सीने में दिल भी रखता हूँ।
सुख-दुख मैं भी सहता हूँ, मैं सबकी परवाह करता हूँ।
पर जो भी है, जैसा भी है, मैं उसमे संतुष्ट हूँ।
हां क्योंकि मैं पुरुष हूँ।।

कभी पुत्र, कभी पति तो कभी पिता के रूप में परिवार की जान है।
पुरुष है तो घर घर है, नही तो शमशान है।
रोज़ अपने दर्द को मर्दानगी का कफ़न पहनाता हूँ,
दिन चाहे घुटता हो, पर ऊपर से खिलखिलाता हूँ।
अपने सभी फ़र्ज़, सब कर्तव्य निभाता हूँ,
दुनिया की परवाह नही करता, बस चलता चला जाता हूँ।
क्योंकि मैं चलता हूँ तभी परिवार का सुयश है।
हां क्योंकि मैं पुरुष हूँ।।

माना स्त्री होना कठिन है, पर पुरुष होना भी कहाँ आसान है।
दोनों की सूझ-बूझ से ही ज़िन्दगी गुलिस्तान है।
क्योंकि ये ज़िन्दगी है जो कभी भेदभाव नही करती,
सबके जीवन में सुख-दुख के रंग है भरती।
तो फिर इतना समझना है जरूरी इस जग में,
स्त्री -पुरूष प्रतिस्पर्धी नही, एक दूजे के हैं पूरक।
आपस में संग हों तो सृष्टि के हैं कारक।

नमन है उस कुदरत को जिसने इन दोनों को बनाया,
स्त्री-पुरुष ने मिलकर ही, इस जन्नत को है सजाया।
एक धरती है, एक है अम्बर, दोनों मांगे इज़्ज़त मान,
दोनों का है अपना रुतबा, दोनों का है अपना स्थान।
मैं सलाम करता हूं उस खुदा को
और करता हूँ हर नर-नारी को प्रणाम।।

                By:-
                         Dr. Gaurav kaushik "पुरुष की व्यथा"

"पुरुष की व्यथा" #कविता


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