Nojoto: Largest Storytelling Platform
rajumandloi1645
  • 29Stories
  • 8Followers
  • 213Love
    559Views

Raju Mandloi

  • Popular
  • Latest
  • Video
8ac7ac7305c3224797ecf2cdc2a9c6d5

Raju Mandloi

जमीन से निकली #सूर्य_देव_की_वेदी हजारों साल पुराने 'फ्रिज' को पास देख खोजकर्ता हैरान!

पुरातत्वविदों को खुदाई के दौरान एक पुराने शहर के कई अवशेष मिले हैं. इनमें सूर्य देवता मिथ्रा की वेदी, तीसरी शताब्दी के सिक्के और एक अनोखा प्राचीन फ्रिज मिला है. खास बात यह है फ्रिज में सदियों बाद भी अब तक खाने के अवशेष मौजूद हैं. इसमें पशुओं की हड्डियां और खाने के टुकड़े और पकाए हुए मांस के सबूत मिले हैं.

जमीन के अंदर से पुरातत्वविदों ने एक प्राचीन ‘फ्रिज’ खोज निकाला है. इसके अंदर सदियों बाद भी अब तक खाने के अवशेष मौजूद हैं. यह ‘फ्रिज’ रोमन मिलिट्री कैंप का बताया जा रहा है. खुदाई के दौरान तीसरी शताब्दी के सिक्के मिले हैं. इसके अलावा सूर्य देव की वेदी भी मिली है.

बुल्गारिया के स्विशटाव शहर से 4 किलोमीटर दूर नोवे आर्किलॉजिकल साइट से ये चीजें मिली हैं. प्राचीन ‘फ्रिज’ को चीनी मिट्टी की प्लेट्स से बनाया गया था. इसमें पशुओं की हड्डियां, खाने के टुकड़े और पकाए हुए मांस के सबूत मिले हैं. 7 अक्टूबर 2022 को पोलैंड के यूनिवर्सिटी ऑफ वॉरसॉ के एक्सपर्ट्स ने ये खुलासे किए हैं.

यूनिवर्सिटी ऑफ वॉरसॉ के प्रोफेसर पिओट्र डाइजेक ने बताया कि यह प्राचीन फ्रिज कब का है और इसके अंदर मौजूद खाना कब रखा गया था? इस बारे में अभी तक कोई सटीक जानकारी नहीं है. उनका मानना है कि फ्रिज से कीड़ों को दूर रखने के लिए पाइन के छाल से निकलने वाले लिक्विड में मिलाकर धूप को जलाया जाता था.

🔶सिक्कों का कलेक्शन भी मिला🔶

यह फ्रिज कैसे काम करता था? इस बारे में एक्सपर्ट्स की तरफ से कोई ठोस जवाब नहीं आया है. मिली जानकारी के मुताबिक यह फ्रिज, जमीन के अंदर गड्ढों में होते थे. वह बर्फ से ढंके होते थे, ताकि अंदर का सामान ठंडा रहे.

एक्सपर्ट्स का दावा है कि डानुबे नदी के किनारे स्थाई डिफेंस बेस के लिए रोमन सैनिकों ने नोवे को बसाया था. इस कैंप में एक किला भी था. 5वीं शताब्दी तक इसमें सैनिक आराम करते थे.

फ्रिज के अलावा पुरातत्वविदों को वहां से सिक्कों का कलेक्शन भी मिला है. यह तीसरी शताब्दी के मध्य का बताया जा रहा है. खुदाई में यहां से घरों के अवशेष के साथ दीवारों की एक लंबी लाइन मिली है. घरों के अवशेष से चक्की, बुनाई और मछली पकड़े के सामान, गड्ढों में हड्डियां और बर्तनों के टुकड़े मिले हैं.

🔶खुदाई में सूर्य देव की वेदी मिली🔶

प्रोफेसर पिओट्र ने बताया कि इस इलाके से मूवेबल स्मारक मिले हैं. उन्होंने कहा- इनमें सबसे खास दो रोमन वेदियां हैं. वह बहुत यूनिक हैं. मिथ्रा को समर्पित वेदियों के बारे में हमारे पास ज्यादा जानकारी नहीं है.

इनमें से एक वेदी सूर्य देवता 'मिथ्रा' को समर्पित है. वहीं दूसरा कैपिटोलाइन ट्रिनिटी (ज्यूपिटर, मिनेर्वा, जूनो) को समर्पित है.

दिनांक - १४.१०.२०२२
आर्टिकल - आज तक
---#_राज_सिंह_---

©Raju Mandloi #WinterEve
8ac7ac7305c3224797ecf2cdc2a9c6d5

Raju Mandloi

🙏 *शिक्षण संस्थाओं के नाम एक विशेष प्रार्थना* 🙏

सादर प्रार्थनीय है कि *दिसंबर माह को क्रांतिकारियों,  बलिदानियों, स्वतंत्रता सेनानियों एवं देश धर्म हेतु अपने प्राण न्योछावर करने वाले वीर पूर्वजों की स्मृति में उत्साह पूर्वक* मनाया जाए। विचारणीय है कि उन बलिदानियों के बारे में भावी पीढ़ी को कौन बताएगा- कैसे बताएगा? इस पुनीत कार्य को हमारे स्कूल बड़़ी सहजता एवं कुशलता से कर सकते हैं , तो आईये अपने बच्चों को बताएं- *सिर्फ 25 दिसंबर ही क्यों?* अन्य महत्वपूर्ण दिवस भी मनाएँ। 

*आखिर 19 दिसंबर-क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल/रोशन सिंह/अशफाक उल्ला का बलिदान दिवस क्यों नहीं?* 

*23 दिसंबर-गुलामी के काल में भारतीय शिक्षा पद्धति की क्रांति का शंखनाद करने वाले एवं निर्भीक स्वतंत्रता सेनानी स्वामी श्रद्धानन्द का बलिदान दिवस क्यों नहीं ?*

*26 दिसंबर-महान क्रांतिकारी उधमसिंह, जिसने जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला 21 साल बाद लंदन जाकर लिया, का जन्म दिवस क्यों नहीं?*

*26 दिसंबर-गुरु गोविन्द सिंह के पुत्रों 5 वर्षीय फतेह सिंह व 7 वर्षीय जोरावर सिंह का बलिदान दिवस क्यों नहीं?*

🤔 *आखिर विचार तो करें कि 25 दिसंबर से क्या प्रेरणा मिलती है?*

*इस देश के  गौरवमयी इतिहास एवं बलिदानी परंपरा के प्रतीक इन महापुरुषों को याद करते हुए  विद्यालयों में फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता, भाषण प्रतियोगिता, प्रश्नोत्तरी, नाटक, रोलप्ले, चित्रकला , भव्य रैलियां आदि का आयोजन करते हुए समाचार पत्रों एवं सोशल मीडिया पर प्रसारित प्रचारित करते हुए भावी पीढ़ी को सही मायने में संस्कारित, शिक्षित एवं प्रेरित किया जा सकता है।*

 यदि नहीं कर पा रहे हैं तो कम से कम दो लाइनों में श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए *text message के रूप में  समस्त अभिभावकों एवं बच्चों को भेज कर* अपना कर्तव्य निभाएं ताकि भावी पीढ़ी उनसे प्रेरणा लेते हुए कम से कम उनके बारे में जान तो पाए।

©Raju Mandloi #WinterEve
8ac7ac7305c3224797ecf2cdc2a9c6d5

Raju Mandloi

तुलसी या संसार में सबसे मिलिए धाय ,
न जाने किस रूप में नारायण मिल जायें ।।

ये वीडियो लखनऊ के प्रसिद्ध ।। बुद्धेश्वर महादेव ।। जी के मंदिर का है । काफी दिनो तक मै भी लखनऊ रहा और अब भी आना जाना रहता है । बुद्धेश्वर चौराहे से न जाने कितनी बार गुजरा लेकिन मंदिर के इस आश्चर्य से अब तक अनभिज्ञ ही रहा ।

आज जब से ये वीडियो देखा है इसे यूट्यूब पर खोजता रहा और अंततः ये मिल ही गया । इन दोनो वीडियो को बहुत ध्यान से देखिये और पुण्य आत्मा , तपस्या , देव , प्रभु भक्ति इन सब पर विचार कीजिए और

विचार ये भी कीजिए कि कैसे गोस्वामी जी महाराज को हनुमान जी मिले और कैसे रूप बदल कर कोई योगी पुरूष अपनी चेतना को हर जन्म मे जाग्रत रख सकता है ।

निसंदेह कुछ तो है जो चमत्कारी है , रहस्यपूर्ण है और विस्मय से भरता है । अबकी अगर लखनऊ गया तो ऐसी विभूति के दर्शन अवश्य करूंगा ।

तो बजरंग बली को साष्टांग दंडवत करते हुए आप सभी को रामरात्रि रक्खे प्रभु बहुत अच्छे से ख्याल हमारा और आपका । 🙏🙏

©Raju Mandloi #WinterEve
8ac7ac7305c3224797ecf2cdc2a9c6d5

Raju Mandloi

“#वर्ष" #शब्द_में_एक_भ्रम_व_एक_तथ्य_अन्तर्निहित_है।

        तथ्य — ऋतुएँ एक निश्चित क्रम से आती हैं जिससे वर्ष नामक एक चक्र बनता है जिसका मान निर्धारित है। इस चक्र में आधारभूत 4 बिन्दु हैं अर्थात् इस चक्र के आरम्भ के 4 विकल्प हैं —
        1. सबसे बड़ा दिन (इसी दिन से वर्ष/वर्षा का आरम्भ मनाया जाता था क्योंकि भारत“वर्ष" कृषिप्रधान था)
        2. शरद् में दिन-रात की अवधि समान (कालान्तर में इसी दिन से वर्ष का आरम्भ मनाया जाने लगा क्योंकि यह पितृविसर्जन के निकटवर्ती था)
        3. सबसे छोटा दिन (केरल आदि कुछ दक्षिणी प्रदेशों को छोड़कर इस दिन से कभी भी सम्पूर्ण भारतवर्ष में वर्ष का आरम्भ नहीं मनाया गया) 
        4. वसन्त में दिन-रात की अवधि समान (वैष्णवों व योरोपवासियों के प्रभाव से इस दिन से वर्ष का आरम्भ मनाया जाने लगा)

        भ्रम — एक वर्ष (ऋतुचक्र) में पृथ्वी सूर्य का एक परिक्रमण पूर्ण कर लेती है।

        पूर्ण परिक्रमण को “नाक्षत्र वर्ष" संज्ञा प्रदान की गई है जिसकी अवधि वर्ष (ऋतुचक्र) से लगभग 20 मिनट अधिक होती है।

        प्रचलित ग्रेगोरियन कैलेण्डर “नाक्षत्र वर्ष" का नहीं अपितु वर्ष (ऋतुचक्र) का द्योतक है किन्तु ऋतुचक्रदृष्ट्या भी इसमें 2 दोष रह गए हैं —
        प्रथम दोष — इसमें 30 दिन के 4 माह, 31 दिन के 7 माह एवं एक माह 28/29 दिन का है जबकि 30 दिन के न्यूनातिन्यून 6 माह अवश्य होने चाहिए।
        प्रथम निवारण — 30 दिन के 6 माह, 31 दिन के 5 माह एवं एक माह 30/31 दिन का होना चाहिए।
        द्वितीय निवारण — 30 दिन के 10 माह, 33 दिन का 11वाँ माह एवं 32/33 दिन का 12वाँ माह होना चाहिए।
        द्वितीय दोष — वर्ष के आरम्भ में 10 दिन का विलम्ब है क्योंकि उत्तरायणारम्भ (उत्तरी गोलार्ध में सबसे छोटा दिन) के 10 दिन पश्चात् 1 जैन्युअरि आती है।
       प्रथम निवारण — किसी 22 डिसैम्बर को सीधे 1 जैन्युअरि घोषित कर दिया जाय अथवा किसी 1 जैन्युअरि को सीधे 11 जैन्युअरि घोषित कर दिया जाय।
        द्वितीय निवारण — ऋतुचक्र-आधारित ग्रेगोरियन कैलेण्डर को “नाक्षत्र वर्ष"-आधारित कैलेण्डर में परिवर्तित कर दिया जाय।
        नक्षत्र अचल किन्तु ऋतुचक्र चल है किन्तु ऋतुचक्र-आधारित ग्रेगोरियन कैलेण्डर में नक्षत्र-आधारित मकर संक्रान्ति आदि घटनाएँ लगभग 72 वर्ष व्यतीत होने पर एक दिनांक आगे बढ़ती रहेंगी अर्थात् कालान्तर में मकर संक्रान्ति का दिनांक क्रमश: 15/16 जैन्युअरि, 16/17 जैन्युअरि, 17/18 जैन्युअरि होता जाएगा।
        यदि “नाक्षत्र वर्ष" पर आधारित कैलेण्डर चलाया जाय तो मकर संक्रान्ति का दिनांक स्थिर ही रहेगा और तब ऋतुचक्र के चारों बिन्दु अर्थात् उत्तरायणारम्भ, वसंत विषुव, दक्षिणायनारम्भ एवं शरद् विषुव लगभग 72 वर्ष व्यतीत होने पर एक दिनांक पिछड़ते रहेंगे अर्थात् 
        उत्तरायणारम्भ का दिनांक क्रमश: 21 डिसैम्बर, 20 डिसैम्बर, 19 डिसैम्बर, 18 डिसैम्बर आदि होता जाएगा ;
        वसंत विषुव का दिनांक क्रमश: 20 मार्च, 19 मार्च, 18 मार्च, 17 मार्च आदि होता जाएगा ;
        दक्षिणायनारम्भ का दिनांक क्रमश: 20 ज्यून, 19 ज्यून, 18 ज्यून, 17 ज्यून आदि होता जाएगा तथा
        शरद् विषुव का दिनांक क्रमश: 22 सैप्टैम्बर, 21 सैप्टैम्बर, 20 सैप्टैम्बर, 19 सैप्टैम्बर आदि होता जाएगा।
        ऋतुचक्र का दिनांक पिछड़ना नितान्त समीचीन ही होगा क्योंकि यह 20 मिनट की वार्षिक दर से वस्तुत: पिछड़ ही रहा है।

सनातनी हिन्दू नववर्ष चैत्र मास के प्रथम दिन से आरम्भ होता है। इस दिन ब्रह्मा ने सृष्टि रचना की शुरुआत की थी; इसी दिन से सतयुग की शुरुआत हुई, इसी दिन भगवान विष्णु ने मत्स्यावतार लिया था। प्रभु श्री राम तथा युधिष्ठिर का राज्यभिषेक भी इसी दिन हुआ। यह शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात् नवरात्र का पहला दिन भी है।
इस दिन नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं अर्थात् किसी भी कार्य को प्रारंभ करने के लिये यह शुभ मुहूर्त होता है।

अब वर्ष के प्रारम्भ होने के समय की बात करते है । हमारा नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ होता है ।
इस समय सूर्य मेष राशि में होता है । सृष्टि का आरम्भ मेष राशि के आदि बिंदु से हुआ है । सृष्टि का पहला दिन रविवार था और सूर्य की पहली होरा थी । 
इस कारण हमारा नव वर्ष तब ही शुरू होता है यानि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ।

अब ईशवी नववर्ष की अवैज्ञानिकता की बात करते है । जिसके स्वागत की तैयारियाँ आप बेसब्री से कर रहें है । उसमे कोई वैज्ञानिता मुझे नजर नहीं आती । इसमें पहले 10 महीने होते थे । तब ये मार्च से शुरू होता था । मार्च का अर्थ भी शुरुवात करना होता है। बाद में इसमें 2 महीने जोड़ दिए गए जनवरी और फ़रवरी इनको अंत में जोड़ना चाहिए था लेकिन शुरू में जोड़ दिया इसका परिणाम ये हुआ कि जहाँ से शुरू होता था वह तीसरा महीना बन गया । दिसम्बर अर्थ दशवाँ होता है यह दशमलव से बना है अब ये 12वाँ महीना बन गया । डेट और दिन रात के बारह बजे बदलती है जिसका कोई आधार नहीं है । वास्तव में पहले विश्व का समय महाकालेश्वर से निर्धारित होता था । लेकिन जब हम अंग्रेजो के गुलाम बने तो उन्होंने हमारे बारे में बहुत कुच्छ जाना और  हमारे साथ डेट और दिन बदलना शुरू किया । क्योंकि भारत और इंग्लैंड के समय में 5 घंटे 30 मिनट का अंतर है ।वो हमसे 5.30 घंटे पिच्छे है । लेकिन ऐसा करके उन्होंने अपने बौद्धिक दिवलयेपन का ही परिचय  दिया उस समय वहाँ रात होती है ।
 
अब हमारी राष्ट्रीय नैतृत्व की बात करे जो आज भी कामनवेल्थ का सदस्य है जिसका अर्थ है हम आज भी इंग्लैंड की महारानी को अपनी आका मानते है ।
 और एक सच्चे सेवक की भाति हमने भी मध्य रात्रि में दिन और दिनांक बदलना शुरू कर दिया ।
हमारी इसी पराधीन मानसिकता के कारण हम अपने पे भरोसा करने के स्थान पर दुसरो का कचरा इस नववर्ष और अन्य तरह कई तरह से ढो रहे है । 
 
सूर्य सिद्धांत और सिद्धांत शिरोमाणि आदि ग्रन्थों में चैत्रशुक्ल प्रतिपदा रविवार का दिन ही सृष्टि का प्रथम दिन माना गया है। ज्योतिर्विदाभरणादि भारतीय शास्त्रीय ग्रन्थ इसका स्पष्ट कारण बतलाते हैं कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को जब सब ग्रह मेष राशि के आदि में थे, उस समय इस कल्प का प्रारम्भ हुआ। काल-गणना सृष्टि के आदि से ही चली। उसी दिन सर्वप्रथम सूर्योदय हुआ।
प्राचीन समय में सप्तर्षि संवत प्रचलन में था; चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य ने कलियुग में धार्मिक साम्राज्य स्थापित करने के लिए इसी दिन विक्रमी संवत स्थापित किया था; इसमें नववर्ष की शुरुआत चंद्रमास के चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से होती है। इसमें महीने का हिसाब सूर्य व चंद्रमा की गति पर रखा जाता है। 12 माह का एक वर्ष और 7 दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत से ही शुरू हुआ। महीने का हिसाब सूर्य व चंद्रमा की गति पर रखा जाता है। विक्रम कैलेंडर की इस धारणा को यूनानियों के माध्यम से अरब और अंग्रेजों ने अपनाया। विक्रमादित्य की भांति शालिनवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना।

सनातन तिथियाँ

चन्द्रमास या चन्द्रमा की गति पर आधारित वैदिक कलेंडर में तिथियों अर्थात दिन या दिनांक के नाम संस्कृत गणना पर रखे गये हैं, वैदिक कलेंडर कई प्रकार के हैं, सबसे अधिक प्रचलित चन्द्रमास ही है। मास को दो भागों में बांटा जाता है, कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष :-
कृष्ण पक्ष अर्थात जब चन्द्रमा की घटती आकृति होती है।
शुक्ल पक्ष अर्थात जब चन्द्रमा की बढती आकृति होती है।

तिथियाँ

1 = एकम (प्रथमी)
2 = द्वितीया
3 = तृतीया
4 = चतुर्थी
5 = पंचमी
6 = षष्ठी
7 = सप्तमी
8 = अष्टमी
9 = नवमी
10 = दशमी
11 = एकादशी
12 = द्वादशी
13 = त्रयोदशी
14 = चतुर्दशी
15 = कृष्ण पक्ष की अमावस्या :: शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा

जब हम तिथि बताते हैं तो पक्ष भी बताते हैं जैसे:
शुक्ल एकादशी अर्थात शुक्ल पक्ष की एकादशी या 11वीं तिथि
कृष्ण पंचमी अर्थात कृष्ण पक्ष की पंचमी या 5वीं तिथि

सनातन माह

सबसे उत्तम वैदिक कलेंडर ऋतुओं (मौसम) के अनुसार चलता है, समस्त वैदिक मास (महीने) का नाम 28 में से 12 नक्षत्रों के नामों पर रखे गये हैं। कान्ती वृन्त पर 12 महीने की सीमायें तय करने के लिए आकाश में 30-30 अंश के 12 भाग हैं और नाम भी तारा मण्डलों के आकृतियों के आधार पर रखे गये हैं।

जिस मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा जिस नक्षत्र पर होता है उसी नक्षत्र के नाम पर उस मास का नाम हुआ –
1. चित्रा नक्षत्र से चैत्र मास l
2. विशाखा नक्षत्र से वैशाख मास l
3. ज्येष्ठा नक्षत्र से ज्येष्ठ मास l
4. पूर्वाषाढा या उत्तराषाढा नक्षत्र से आषाढ़ l
5. श्रावण नक्षत्र से श्रावण मास l
6. पूर्वाभाद्रपद या उत्तराभाद्रपद नक्षत्र से भाद्रपद l
7. अश्विनी नक्षत्र से अश्विन मास l
8. कृत्तिका नक्षत्र से कार्तिक मास l
9. मृगशिरा नक्षत्र से मार्गशीर्ष मास l
10. पुष्य नक्षत्र से पौष मास l
11. माघा नक्षत्र से माघ मास l
12. पूर्वाफाल्गुनी या उत्तराफाल्गुनी से फाल्गुन मास l

व्यवस्था

वैदिक काल गणना इतनी वैज्ञानिक व्यवस्था है कि सदियों-सदियों तक एक पल का भी अन्तर नहीं पड़ता; इसका अध्ययन करते हुए विश्व के वैज्ञानिक भी आश्चर्यचकित हैं कि अत्यंत प्रागैतिहासिक काल में भी भारतीय ऋषियों ने इतनी सूक्ष्तम् और सटिक गणना कैसे कर ली।

चूंकि सूर्य कान्ति मण्डल के ठीक केन्द्र में नहीं हैं, अत: कोणों के निकट धरती सूर्य की प्रदक्षिणा 28 दिन में कर लेती है, और अधिक भाग वाले पक्ष में 32 दिन लगता है।

यूरोपीय कैलेण्डर अव्यवस्थित है,पश्चिमी काल गणना में वर्ष के 365.2422 दिन को 30 और 31 के हिसाब से 12 महीनों में विभक्त करते है। अंग्रेज़ी वर्ष में प्रत्येक चार वर्ष के अन्तराल पर फरवरी महीने को लीप इयर घोषित कर देते है, परन्तु फिर भी नौ मिनट 11 सेकण्ड का समय बच जाता है तो प्रत्येक चार सौ वर्षो में भी एक दिन बढ़ाना पड़ता है तब भी पूर्णाकन नहीं हो पाता है।

मार्च 21 और सेप्तम्बर 22 को equinox (बराबर दिन और रात) माना जाता है, परन्तु अन्तरिक्ष विज्ञान के अनुसार सभी वर्षों में यह अलग-अलग दिन ही होता है। यही उत्तरी गोलार्ध में जून 20-21 को सबसे बड़ा दिन और दिसंबर 20-23 को सबसे छोटा दिन मानने के नियम पर भी है, यह वर्ष कभी सही दिनांक नहीं देता। इसके लिए पेरिस के अन्तरराष्ट्रीय परमाणु घड़ी को एक सेकण्ड स्लो कर दिया गया फिर भी 22 सेकण्ड का समय अधिक चल रहा है; यह पेरिस की वही प्रयोगशाला है जहां की सीजीएस (CGS) सिस्टम से संसार भर के सारे मानक तय किये जाते हैं। ये ऐसा इसलिए है क्योंकि उसको वैदिक कैलेण्डर की नकल  अशुद्ध रूप से तैयार किया गया था।

कैलेण्डर/वर्ष का प्रतितोलन

प्राचीन काल में यूरोप में भी हिन्दू प्रभाव था, और सम्पूर्ण विश्व में चैत्र(चैत) मास को नववर्ष मनाया जाता था जो अंग्रेज़ी कैलेन्डर के अनुसार मार्च-अप्रैल में आता है। चैत्र मास अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार मार्च-अप्रैल में आता है, आज नया साल भले ही वो 1 जनवरी को माना लें पर पूरे विश्व में वित्त-वर्ष अप्रैल से लेकर मार्च तक होता है यानि मार्च में अंत और अप्रैल से शुरू।

 

12 बजे आधी रात से नया दिन का कोई तुक नहीं बनता है। दिन की शुरुआत सूर्योदय से होती है, सूर्योदय से करीब दो-ढाई घंटे पहले के समय को ब्रह्म-मुहूर्त्त की बेला कहते हैं, और यहाँ से नए दिन की तैयारी होती है। प्राचीन समय में भारत विश्वगुरु था, इसलिए कलियुग के समय ज्ञान के अभाव में यूरोप के लोग भारतियों का ही अनुकरण करना चाहते थे। अत: वे अपना तारीख या दिन 12 बजे रात से बदल देते थे क्योंकि इस समय भारत में नया दिन होता है, इसलिए वो अपना दिन भी भारतीयों के दिन से मिलाकर रखना चाहते थे।

।।हर हर महादेव ।।
।।जय परशुराम ।।

#We_support_hindutava_unity

©Raju Mandloi #WinterEve
8ac7ac7305c3224797ecf2cdc2a9c6d5

Raju Mandloi

जिस अशोक को बैठे बैठाए पूरा साम्राज्य मिला उसने सिर्फ बगावतों को कुचला वो रातोरात महान कैसे हो गया?

सेल्युकस को हराने वाला चंद्रगुप्त मौर्य, महाजनपदों के भारत को अखंड बनाने वाला भी चंद्रगुप्त। लेकिन अचानक से इतिहास कहने लगता है कि उसका पौता अशोक महान।

शुरुआत से यही लक्ष्य रहा है कि हिन्दू अहिंसावादी बने, कोई भी आक्रांता आये तो बस झेलते रहे। चंद्रगुप्त मौर्य एक सशक्त भारत का निर्माण कर रहा था वह भारत जो यूनानियों को मार मारकर खदेड़ रहा था ऊपर से वो एक चरवाहा जो कि एक ब्राह्मण की मदद से सम्राट बन गया था।

ये सब पढ़ाने लगे तो हिन्दुओ में फुट कैसे पड़ेगी? उन्हें तो ब्राह्मणों को अत्याचारी और कमजोरों के अधिकार मारने वाला बताना था तब ही तो भारत अंदर से कमजोर पड़ता।

ठीक इसके विपरीत अशोक जिसकी अहिंसा की नीति के कारण अफगानिस्तान में इस्लाम का उद्भव हो सका। वह श्रेयस्कर है क्योकि यही वो दर्शन है जिससे भारत भी कमजोर बनेगा और एक दिन अफगानिस्तान की तरह अपनी सभ्यता इस्लाम या किसी अन्य आक्रांता को समर्पित कर देगा।

ये तो बस एक उदाहरण है ऐसे और भी कई उदाहरण है, राजा दाहिर हार गए इसलिए इतिहास में उन्हें जगह मिल गयी वही बप्पा रावल जीत गए तो गायब हो गए। राजा दाहिर ब्राह्मण था ऊपर से वीर भी निकला इस कारण उसे पाठ्यक्रम में बस 1-2 लाइन ही मिली। यदि कायर होता या अय्याश होता तो बकायदा ब्राह्मण शब्द का प्रयोग करके इतिहास में छापा जाता।

पिछले 75 वर्षो में से 67 वर्ष यही चला है लेकिन इन इन्फॉर्मेशन वारियर्स ने सपने में भी किसी इंटरनेट की दुनिया की कल्पना नही की होगी। कल्पना की भी होगी तो यह निश्चिंतता अवश्य रही होगी कि हिन्दुओ की सरकार तो कभी नही बनेगी।

लेकिन आज स्थिति ऐसी है कि सरकार तो बहुत पीछे छूट गयी अब तो पूरी राजनीति में हिन्दू केंद्र बिंदु है। विधानसभा और निकाय चुनावों में भले ही बीजेपी, कांग्रेस या आप जीती हो। एक हिन्दू होने के नाते हमे खुश होना चाहिए कि तीनों ने हिंदुत्व के मुद्दे पर चुनाव लड़े। 

अरविंद केजरीवाल ने नोट पर गणेश जी की तस्वीर वाली बात कही भले ही प्रैक्टिकल ग्राउंड ना हो लेकिन उसने एक बार को मुस्लिम वोटर दरकिनार कर दिए थे। आप भले ही ये कहे कि मुसलमानो की अंडरस्टैंडिंग हमसे अच्छी है लेकिन मैं यही कहूंगा कि यदि ऐसा सच मे होता तो वे शाहीन बाग जैसी गलतियां करके अपना असली चेहरा इतना जल्दी तो सामने नही लाते।

दूसरी ओर राहुल गांधी की भारत यात्रा देखे, उसने हर बड़े मंदिर पर खुद को एक बड़ा हिन्दू सिद्ध करने का प्रयास किया। जबकि पूरी यात्रा में कम से कम मैंने तो उसकी कोई तस्वीर टोपी में नही देखी।

बाकी बीजेपी तो बीजेपी है ही। अच्छा लगता है जब ये इन्फॉर्मेशन वारियर्स हमारे आगे घुटने पर बैठे होते है।

✍️ परख सक्सेना ✍️

©Raju Mandloi #Shayari
8ac7ac7305c3224797ecf2cdc2a9c6d5

Raju Mandloi

सबसे शक्तिशाली अस्त्र ==>>  इस लेख में हम उन कुछ विशेष दिव्यास्त्रों के विषय में बात करेंगे जो त्रिदेवों से सम्बंधित हैं और सबसे अधिक शक्तिशाली माने जाते हैं, जिन्हे हम महास्त्र कहते हैं। आम तौर पर हम त्रिदेवों के दिव्यास्त्रों में ब्रह्मास्त्र, नारायणास्त्र एवं पाशुपतास्त्र के बारे में जानते हैं किन्तु वास्तव में त्रिदेवों के महान अस्त्र भी तीन स्तरों/श्रेणियों में बंटे हैं और इनसे भी शक्तिशाली हैं। आइये त्रिदेवों के उन महान अस्त्रों के विषय में जानते हैं।

➡️ स्तर १:

⏺️ #ब्रह्मास्त्र: ये संभवतः सर्वाधिक प्रसिद्ध दिव्यास्त्र था। किसी भी योद्धा के पास ब्रह्मास्त्र होना सम्मान की बात मानी जाती थी। इसकी रचना स्वयं परमपिता ब्रह्मा ने की थी और ये अमोघ अस्त्र था। इसे जिसपर भी छोड़ा जाये उसका नाश अवश्यम्भावी था। ब्रह्मास्त्र का प्रतिकार केवल किसी अन्य ब्रह्मास्त्र से ही किया जा सकता था। आज के परमाणु बम को आप ब्रह्मास्त्र का ही एक रूप मान सकते हैं। इसे छोड़ने पर भयानक प्रलयाग्नि निकलती थी जो जीव-जंतु, वनस्पति एवं समस्त चर-अचर वस्तुओं का नाश कर देती थी। यहाँ पर भी ब्रह्मास्त्र द्वारा विनाश होता था वहाँ १२ वर्षों तक भयानक दुर्भिक्ष पड़ जाता था। ये ब्रह्मा के १ मुख का प्रतिनिधित्व करता था। 

रामायण में श्रीराम, लक्ष्मण, रावण, मेघनाद, अतिकाय, परशुराम, वशिष्ठ एवं विश्वामित्र के पास ब्रह्मास्त्र था। श्रीराम ने रावण तथा लक्ष्मण ने अतिकाय और मेघनाद का वध ब्रह्मास्त्र द्वारा ही किया था। महाभारत में भीष्म, द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा एवं अर्जुन के पास ब्रह्मास्त्र था। इनमें अश्वथामा केवल इसे चलाना जनता था किन्तु इसे वापस लेने की कला उसे नहीं पता थी। जब अश्वथामा ने उप-पांडवों का वध दिया तब अर्जुन के विरुद्ध उसने ब्रह्मास्त्र चला दिया जिसका प्रतिकार करने के लिए अर्जुन ने भी ब्रह्मस्त्र चलाया किन्तु उस विनाश को रोकने हेतु देवर्षि नारद और महर्षि वेव्यास ने उस युद्ध को रुकवा दिया। तब अर्जुन ने तो ब्रह्मास्त्र वापस ले लिया किन्तु अश्वथामा ना ले सका। तब उसने उस ब्रह्मास्त्र का प्रहार उत्तरा के गर्भ पर किया जिससे उसे एक मृत पुत्र प्राप्त हुआ। बाद में श्रीकृष्ण ने उसे जीवनदान दिया और वही परीक्षित के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 

⏺️ #वैष्णवास्त्र: ये भगवान विष्णु का अचूक अस्त्र था जिसे उनके अतिरिक्त कोई अन्य रोक नहीं सकता था। इसे केवल श्रीहरि को प्रसन्न कर ही प्राप्त किया जा सकता था। इससे ना केवल मनुष्य अपितु देवताओं का भी नाश हो सकता था। रामायण में महर्षि विश्वामित्र के पास ये अस्त्र था जो उन्होंने श्रीराम को प्रदान किया। इसी महान अस्त्र से ही श्रीराम ने भगवान परशुराम के प्रभाव का अंत कर दिया था और तब परशुराम को ये विश्वास हो गया कि श्रीराम विष्णु अवतार ही हैं। महाभारत में ये अस्त्र श्रीकृष्ण और भगदत्त के पास था। भगदत्त ने इसका प्रयोग अर्जुन पर कर दिया था किन्तु श्रीकृष्ण ने मार्ग में ही उसे अपने ऊपर ले लिया और अर्जुन के प्राण बचाये।

⏺️ #रुद्रास्त्र: ये महादेव का महाविध्वंसक अस्त्र था। जब इसे चलाया जाता था तो ११ रुद्रों की सम्मलित शक्ति एक साथ प्रहार करती थी और लक्ष्य का विध्वंस कर देती थी। वैसे तो प्रामाणिक रुप से इस अस्त्र का किसी के पास होने का वर्णन नहीं है किन्तु एक कथा के अनुसार अर्जुन ने इसे महादेव से प्राप्त किया था। जब अर्जुन स्वर्गलोक में थे तब उन्होंने असुरों के विरुद्ध युद्ध में देवराज इंद्र की सहायता की थी। उस युद्ध में देवता परास्त होने ही वाले थे तब कोई और उपाय ना देख कर अर्जुन ने रुद्रास्त्र का संधान किया और केवल एक ही प्रहार में ३००००००० (तीन करोड़) असुरों का वध कर दिया।

➡️ स्तर २:

⏺️ #ब्रह्मशिर: ये ब्रह्मास्त्र का ही विकसित रूप था जो भगवान ब्रह्मा के ४ मुखों का प्रतिनिधित्व करता था। इस प्रकार ये अस्त्र ब्रह्मास्त्र से ४ गुणा अधिक शक्तिशाली था। ये अस्त्र इतना सटीक था कि इसके उपयोग से वन के बीच केवल एक घांस को भी नष्ट किया जा सकता था। इसके किसी योद्धा के पास होने का कोई सटीक वर्णन नहीं है। केवल महर्षि अग्निवेश के पास ये निर्विवाद रूप से था। इसके अतिरिक्त कुछ लोग द्रोण, अर्जुन और अश्वथामा के पास भी ब्रह्मशिर के होने की बात कहते हैं। कुछ स्थान पर ये भी वर्णित है कि अश्वथामा और अर्जुन ने अपने अंतिम युद्ध में ब्रह्मशिर अस्त्र का ही प्रयोग किया था। हालाँकि अधिकतर स्थान पर ब्रह्मास्त्र का ही वर्णन है। ब्रह्मशिर अस्त्र का निवारण केवल किसी दूसरे ब्रह्मशिर द्वारा ही किया जा सकता था। किन्तु ऐसा वर्णित है कि जहाँ दो ब्रह्मशिर अस्त्र टकराते हैं वहाँ १२ दिव्य वर्षों (४३२० मानव वर्ष) तक एक पत्ता भी नहीं उगता। १ दिव्य वर्ष ३६० मानव वर्षों के बराबर होता है। काल गणना के बारे में विस्तार से यहाँ पढ़ें। 

⏺️ #नारायणास्त्र: ये भगवान नारायण का अत्यंत विनाशकारी अस्त्र है। इसका कोई प्रतिकार नहीं है और इसे केवल भगवान विष्णु ही रोक सकते हैं। इस अस्त्र का प्रयोग करने से इन्द्रास्त्र, वरुणास्त्र, आग्नेयास्त्र इत्यादि अनेकानेक दिव्यास्त्र इससे निकलकर शत्रुओं का नाश कर देते हैं। इसके सामने पूर्ण समर्पण करने पर ये अपना प्रभाव नहीं डालता था। रामायण में ये अस्त्र श्रीराम एवं मेघनाद के पास था। महाभारत में ये अस्त्र श्रीकृष्ण एवं अश्वथामा के पास था। युद्ध के पन्द्रहवें दिन द्रोण की मृत्यु के बाद बाद अश्वथामा  ने कौरव सेना की ओर से नारायणास्त्र से पांडव सेना पर जिससे १ अक्षौहिणी सेना तो तत्काल समाप्त हो गयी। तब श्रीकृष्ण के परामर्श अनुसार सभी ने उस अस्त्र के समक्ष समर्पण कर दिया। किन्तु भीम ने समर्पण करने से मना कर दिया। तब श्रीकृष्ण ने बल पूर्वक उनसे समर्पण करवाया और तब जाकर सबके प्राण बचे। 

⏺️ #पाशुपतास्त्र: ये भगवान शंकर का महाभयंकर अस्त्र है जिसका कोई प्रतिकार नहीं है। एक बार छूटने पर ये लक्ष्य को नष्ट कर के ही लौटता है। कोई भी शक्ति पाशुपतास्त्र का सामना नहीं कर सकती। इस अस्त्र द्वारा ही भगवान शंकर ने केवल एक ही प्रहार में त्रिपुर का संहार कर दिया था। रामायण में केवल मेघनाद के पास ये अस्त्र था जो उसे भगवान शंकर से प्राप्त किया था। उसने लक्ष्मण पर इसका प्रयोग भी किया था किन्तु महादेव की कृपा से इस अस्त्र ने उनका अहित नहीं किया। महाभारत में ये अस्त्र केवल अर्जुन के पास था जो उसने निर्वासन के समय महादेव से प्राप्त किया था। महाभारत में इस अस्त्र के प्रयोग का कोई वर्णन नहीं है।

➡️ स्तर ३:

⏺️ ब्रह्माण्ड अस्त्र: ये परमपिता ब्रह्मा का सबसे शक्तिशाली अस्त्र है जो उनके ५ सिरों का प्रतिनिधित्व करता है। ये ब्रह्मास्त्र से कई गुणा अधिक शक्तिशाली होता है और इसके प्रहार से पूरे विश्व का नाश किया जा सकता है। कई लोकों को एक साथ समाप्त करने की शक्ति इस अस्त्र में होती है। केवल ब्रह्मापुत्र महर्षि वशिष्ठ के पास इस अस्त्र के होने का वर्णन है। विश्वामित्र के विरुद्ध युद्ध में वशिष्ठ के ब्रह्माण्ड अस्त्र ने विश्वामित्र के ब्रह्मास्त्र को पी लिया था। महाभारत में ये अस्त्र किसी के पास नहीं था। 

⏺️ #विष्णुज्वर: ये भगवान विष्णु का सर्वाधिक शक्तिशाली अस्त्र है। इस अस्त्र के प्रहार से भयानक ठंड उत्पन होती है जो समस्त चर सृष्टि की चेतना लुप्त कर देती है। इस अस्त्र का कोई प्रतिकार नहीं है। ये अस्त्र नारायण के अतिरिक्त केवल श्रीकृष्ण के पास था। शिव पुराण एवं विष्णु पुराण दोनों में इस अस्त्र का वर्णन है जब बाणासुर के विरुद्ध युद्ध में श्रीकृष्ण ने इस अस्त्र का प्रयोग भगवान शंकर पर कर दिया था। 

⏺️ #शिवज्वर: ये भगवान शंकर का अस्त्र है जिसे माहेश्वरज्वर भी कहते हैं। ये महादेव का सर्वाधिक विध्वंसक अस्त्र है। इसकी शक्ति महादेव के तीसरे नेत्र की ज्वाला के समान है जिससे क्षण में समस्त सृष्टि को भस्मीभूत किया जा सकता है। इसका भी कोई प्रतिकार नहीं है। श्रीकृष्ण द्वारा विष्णुज्वर के विरुद्ध इस अस्त्र का उपयोग किया गया था। विष्णु पुराण में विष्णुज्वर को एवं शिव पुराण में शिवज्वर को विजेता बताया गया है । ब्रह्मपुराण में वर्णित है कि संसार की रक्षा हेतु उस युद्ध को परमपिता ब्रह्मा ने मध्यस्थता कर रुकवा दिया था। 🙏🏽 साभार 🙏🏽
दिनांक - १४.१२.२०२२
---#राज_सिंह---

©Raju Mandloi #hinduism
8ac7ac7305c3224797ecf2cdc2a9c6d5

Raju Mandloi

#राजा_जाम_दिग्विजयसिंह_जाडेजा_और_पोलेंड

दूसरे विश्व युद्ध के समय , #पोलेंड पुरी तरह तबाह हो गया था , सिर्फ औरते और बच्चे बचे थे बाकी सब वहां के पुरुष युद्ध मे मारे गए थे , पोलेंड की स्त्रियों ने पोलेंड छोड़ दिया क्योंकि वहां उनकी इज्जत को खतरा था , तो बचे खुचे लोग और बाकी सब महिलाए व बच्चे से भरा जहाज लेकर निकल गए , लेकिन किसी भी देश ने उनको शरण नही दी , फिर यह जहाज भारत की तरफ आया वहां गुजरात के #जामनगर के तट पर जहाज़ रुका , तब वहां के #राजा_जाम_दिग्विजयसिंह_जाडेजा उनकी दिन हीन हालत देखकर उन्हे आश्रय दिया ।।

जानते हो ये पोलेंड वाले जाम नगर के #महाराजा_दिग्विजयसिंह_जाडेजा के नामपर क्यो शपथ ले रहे है ? 

 क्या जानते हो आज युक्रेन से आ रहे भारत के लोगो को पोलेंड बिना वीजा के क्यो आने दे रहा  अपने देशमे??

न केवल आश्रय दिया अपितु उनके बच्चों को आर्मी की ट्रेनिग दी , उनको पढ़ाया लिखाया  ,बाद मे उन्हें हथियार देकर पोलेंड भेजा जहा उन्होंने जामनगर मिली आर्मी की ट्रेनिग से देश को पुनः स्थापित किया , आज भी पोलेंड के लोग उन्हें अन्नदाता मानते है , उनके संविधान के अनुसार जाम दिग्विजयसिंह उनके लिए ईश्वर के समान हे इसीलिए उनको साक्षी मानकर आज भी वहां के नेता संसद में शपथ लेते है ,  यदि भारत मे दिग्विजयसिंहजी का अपमान किया जाए तो यहां की कानून व्यवस्था में सजा का कोई प्रावधान नही लेकिन यही भूल पोलेंड में करने पर तोप के मुह पर बांधकर उड़ा दिया जाता है ।।

आज भी पोलेंड जाम साहब के उस कर्म को नही भुला इसलिए आज भारत के लोगो को बिना वीजा के आने दे रहा है उनकी सभी प्रकार से मदद कर रहा है ।।  

क्या भारत के इतिहास की पुस्तकों में कभी पढ़ाया गया दिग्वजसिंहजी को ?? यदि कोई पोलेंड का नागरिक भारतीय को पूछ भी ले कि क्या आप जामनगर के महाराजा दिग्वजसिंहजी को जानते हो तो हमारे युक्रेन में डॉक्टर की पढ़ाई करने गए भारतीय छात्र कहेगे नो एक्च्युलिना No , we don't know who they were?  
थू है ऐसी शिक्षा व्यवस्था पर अपने ही जड़ो से काटकर रख दिया है हमे ।। 🙏🏼साभार🙏🏼

दिनांक - ०४.०३.२०२२
---#राज_सिंह---

©Raju Mandloi समाज
8ac7ac7305c3224797ecf2cdc2a9c6d5

Raju Mandloi

#_दशहरा #_विजयादशमी #_आयुध_पूजन
   
दशहरा (विजयादशमी या आयुध-पूजा) हिन्दुओं का सबसे बड़ा त्योहार है। अश्विन (क्वार) मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को इसका आयोजन होता है। भगवान राम ने इसी दिन रावण का वध किया था तथा देवी दुर्गा ने नौ रात्रि एवं दस दिन के युद्ध के उपरान्त महिषासुर पर विजय प्राप्त किया था। इसे असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है। इसीलिये इस दशमी को 'विजयादशमी' के नाम से जाना जाता है (दशहरा = दशहोरा = दसवीं तिथि)। दशहरा वर्ष की तीन अत्यन्त शुभ तिथियों में से एक है, अन्य दो हैं चैत्र शुक्ल की एवं कार्तिक शुक्ल की प्रतिपदा।

इस दिन लोग शस्त्र-पूजा करते हैं और नया कार्य प्रारम्भ करते हैं (जैसे अक्षर लेखन का आरम्भ, नया उद्योग आरम्भ, बीज बोना आदि)। ऐसा विश्वास है कि इस दिन जो कार्य आरम्भ किया जाता है उसमें विजय मिलती है। प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे। इस दिन जगह-जगह मेले लगते हैं। रामलीला का आयोजन होता है। रावण का विशाल पुतला बनाकर उसे जलाया जाता है। दशहरा अथवा विजयदशमी भगवान राम की विजय के रूप में मनाया जाए अथवा दुर्गा पूजा के रूप में, दोनों ही रूपों में यह शक्ति-पूजा का पर्व है, शस्त्र पूजन की तिथि है। हर्ष और उल्लास तथा विजय का पर्व है। भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक है, शौर्य की उपासक है। व्यक्ति और समाज के रक्त में वीरता प्रकट हो इसलिए दशहरे का उत्सव रखा गया है। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है।

#_महत्त्व
दशहरे का सांस्कृतिक पहलू भी है। भारत कृषि प्रधान देश है। जब किसान अपने खेत में सुनहरी फसल उगाकर अनाज रूपी संपत्ति घर लाता है तो उसके उल्लास और उमंग का पारावार नहीं रहता। इस प्रसन्नता के अवसर पर वह भगवान की कृपा को मानता है और उसे प्रकट करने के लिए वह उसका पूजन करता है। समस्त भारतवर्ष में यह पर्व विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है। महाराष्ट्र में इस अवसर पर 'सिलंगण' के नाम से सामाजिक महोत्सव के रूप में भी इसको मनाया जाता है। सायंकाल के समय पर सभी ग्रामवासी सुंदर-सुंदर नव वस्त्रों से सुसज्जित होकर गाँव की सीमा पार कर शमी वृक्ष के पत्तों के रूप में 'स्वर्ण' लूटकर अपने ग्राम में वापस आते हैं। फिर उस स्वर्ण का परस्पर आदान-प्रदान किया जाता है।

#_विभिन्न_प्रदेशों_का_दशहरा

दशहरा अथवा विजयदशमी राम की विजय के रूप में मनाया जाए अथवा दुर्गा पूजा के रूप में, दोनों ही रूपों में यह आदिशक्ति पूजा का पर्व है, शस्त्र पूजन की तिथि है। हर्ष और उल्लास तथा विजय का पर्व है। देश के कोने-कोने में यह विभिन्न रूपों से मनाया जाता है, बल्कि यह उतने ही जोश और उल्लास से दूसरे देशों में भी मनाया जाता जहां प्रवासी भारतीय रहते हैं।

#_हिमाचल_प्रदेश में कुल्लू का दशहरा बहुत प्रसिद्ध है। अन्य स्थानों की ही भाँति यहाँ भी दस दिन अथवा एक सप्ताह पूर्व इस पर्व की तैयारी आरंभ हो जाती है। स्त्रियाँ और पुरुष सभी सुंदर वस्त्रों से सज्जित होकर तुरही, बिगुल, ढोल, नगाड़े, बाँसुरी आदि-आदि जिसके पास जो वाद्य होता है, उसे लेकर बाहर निकलते हैं। पहाड़ी लोग अपने ग्रामीण देवता का धूम धाम से जुलूस निकाल कर पूजन करते हैं। देवताओं की मूर्तियों को बहुत ही आकर्षक पालकी में सुंदर ढंग से सजाया जाता है। साथ ही वे अपने मुख्य देवता रघुनाथ जी की भी पूजा करते हैं। इस जुलूस में प्रशिक्षित नर्तक नटी नृत्य करते हैं। इस प्रकार जुलूस बनाकर नगर के मुख्य भागों से होते हुए नगर परिक्रमा करते हैं और कुल्लू नगर में देवता रघुनाथजी की वंदना से दशहरे के उत्सव का आरंभ करते हैं। दशमी के दिन इस उत्सव की शोभा निराली होती है।

#_पंजाब में दशहरा नवरात्रि के नौ दिन का उपवास रखकर मनाते हैं। इस दौरान यहां आगंतुकों का स्वागत पारंपरिक मिठाई और उपहारों से किया जाता है। यहां भी रावण-दहन के आयोजन होते हैं, व मैदानों में मेले लगते हैं।

#_बस्तर में दशहरे के मुख्य कारण को राम की रावण पर विजय ना मानकर, लोग इसे मां दंतेश्वरी की आराधना को समर्पित एक पर्व मानते हैं। दंतेश्वरी माता बस्तर अंचल के निवासियों की आराध्य देवी हैं, जो दुर्गा का ही रूप हैं। यहां यह पर्व पूरे ७५ दिन चलता है। यहां दशहरा श्रावण मास की अमावस से आश्विन मास की शुक्ल त्रयोदशी तक चलता है। प्रथम दिन जिसे काछिन गादि कहते हैं, देवी से समारोहारंभ की अनुमति ली जाती है। देवी एक कांटों की सेज पर विरजमान होती हैं, जिसे काछिन गादि कहते हैं। यह कन्या एक अनुसूचित जाति की है, जिससे बस्तर के राजपरिवार के व्यक्ति अनुमति लेते हैं। यह समारोह लगभग १५वीं शताब्दी से शुरु हुआ था। इसके बाद जोगी-बिठाई होती है, इसके बाद भीतर रैनी (विजयदशमी) और बाहर रैनी (रथ-यात्रा) और अंत में मुरिया दरबार होता है। इसका समापन अश्विन शुक्ल त्रयोदशी को ओहाड़ी पर्व से होता है।

#_बंगाल, #_ओडिशा और #_असम में यह पर्व दुर्गा पूजा के रूप में ही मनाया जाता है। यह बंगालियों,ओडिआ, और आसाम के लोगों का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है। पूरे बंगाल में पांच दिनों के लिए मनाया जाता है।ओडिशा और असम मे ४ दिन तक त्योहार चलता है। यहां देवी दुर्गा को भव्य सुशोभित पंडालों विराजमान करते हैं। देश के नामी कलाकारों को बुलवा कर दुर्गा की मूर्ति तैयार करवाई जाती हैं। इसके साथ अन्य देवी द्वेवताओं की भी कई मूर्तियां बनाई जाती हैं। त्योहार के दौरान शहर में छोटे मोटे स्टाल भी मिठाईयों से भरे रहते हैं। यहां षष्ठी के दिन दुर्गा देवी का बोधन, आमंत्रण एवं प्राण प्रतिष्ठा आदि का आयोजन किया जाता है। उसके उपरांत सप्तमी, अष्टमी एवं नवमी के दिन प्रातः और सायंकाल दुर्गा की पूजा में व्यतीत होते हैं। अष्टमी के दिन महापूजा और बलि भि दि जाति है। दशमी के दिन विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। प्रसाद चढ़ाया जाता है और प्रसाद वितरण किया जाता है। पुरुष आपस में आलिंगन करते हैं, जिसे कोलाकुली कहते हैं। स्त्रियां देवी के माथे पर सिंदूर चढ़ाती हैं, व देवी को अश्रुपूरित विदाई देती हैं। इसके साथ ही वे आपस में भी सिंदूर लगाती हैं, व सिंदूर से खेलते हैं। इस दिन यहां नीलकंठ पक्षी को देखना बहुत ही शुभ माना जाता है। तदनंतर देवी प्रतिमाओं को बड़े-बड़े ट्रकों में भर कर विसर्जन के लिए ले जाया जाता है। विसर्जन की यह यात्रा भी बड़ी शोभनीय और दर्शनीय होती है। सहारनपुर उत्तर प्रदेश मे शाकम्भरी देवी शक्तिपीठ पर भक्तों की इस दिन खूब चहल पहल होती है पूरी शिवालिक घाटी शाकम्भरी देवी के जयकारो से गूंज उठती है यहाँ पर नवरात्रि मे भारी मेला लगता है आश्विन का मेला यहाँ बहुत बड़ा होता है और काफी किलोमीटर लंबी लाइन लगती है

#_तमिल_नाडु, #_आंध्र_प्रदेश एवं #_कर्नाटक में दशहरा नौ दिनों तक चलता है जिसमें तीन देवियां लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की पूजा करते हैं। पहले तीन दिन लक्ष्मी - धन और समृद्धि की देवी का पूजन होता है। अगले तीन दिन सरस्वती- कला और विद्या की देवी की अर्चना की जाती है और अंतिम दिन देवी दुर्गा-शक्ति की देवी की स्तुति की जाती है। पूजन स्थल को अच्छी तरह फूलों और दीपकों से सजाया जाता है। लोग एक दूसरे को मिठाइयां व कपड़े देते हैं। यहां दशहरा बच्चों के लिए शिक्षा या कला संबंधी नया कार्य सीखने के लिए शुभ समय होता है। कर्नाटक में मैसूर का दशहरा भी पूरे भारत में प्रसिद्ध है। मैसूर में दशहरे के समय पूरे शहर की गलियों को रोशनी से सज्जित किया जाता है और हाथियों का शृंगार कर पूरे शहर में एक भव्य जुलूस निकाला जाता है। इस समय प्रसिद्ध मैसूर महल को दीपमालिकाओं से दुलहन की तरह सजाया जाता है। इसके साथ शहर में लोग टार्च लाइट के संग नृत्य और संगीत की शोभायात्रा का आनंद लेते हैं। इन द्रविड़ प्रदेशों में रावण-दहन का आयोजन नहीं किया जाता है।

#_गुजरात में मिट्टी सुशोभित रंगीन घड़ा देवी का प्रतीक माना जाता है और इसको कुंवारी लड़कियां सिर पर रखकर एक लोकप्रिय नृत्य करती हैं जिसे गरबा कहा जाता है। गरबा नृत्य इस पर्व की शान है। पुरुष एवं स्त्रियां दो छोटे रंगीन डंडों को संगीत की लय पर आपस में बजाते हुए घूम घूम कर नृत्य करते हैं। इस अवसर पर भक्ति, फिल्म तथा पारंपरिक लोक-संगीत सभी का समायोजन होता है। पूजा और आरती के बाद डांडिया रास का आयोजन पूरी रात होता रहता है। नवरात्रि में सोने और गहनों की खरीद को शुभ माना जाता है।

#_महाराष्ट्र में नवरात्रि के नौ दिन मां दुर्गा को समर्पित रहते हैं, जबकि दसवें दिन ज्ञान की देवी सरस्वती की वंदना की जाती है। इस दिन विद्यालय जाने वाले बच्चे अपनी पढ़ाई में आशीर्वाद पाने के लिए मां सरस्वती के तांत्रिक चिह्नों की पूजा करते हैं। किसी भी चीज को प्रारंभ करने के लिए खासकर विद्या आरंभ करने के लिए यह दिन काफी शुभ माना जाता है। महाराष्ट्र के लोग इस दिन विवाह, गृह-प्रवेश एवं नये घर खरीदने का शुभ मुहूर्त समझते हैं।

#_कश्मीर के अल्पसंख्यक हिन्दू नवरात्रि के पर्व को श्रद्धा से मनाते हैं। परिवार के सारे वयस्क सदस्य नौ दिनों तक सिर्फ पानी पीकर उपवास करते हैं। अत्यंत पुरानी परंपरा के अनुसार नौ दिनों तक लोग माता खीर भवानी के दर्शन करने के लिए जाते हैं। यह मंदिर एक झील के बीचोबीच बना हुआ है। ऐसा माना जाता है कि देवी ने अपने भक्तों से कहा हुआ है कि यदि कोई अनहोनी होने वाली होगी तो सरोवर का पानी काला हो जाएगा। कहा जाता है कि इंदिरा गांधी की हत्या के ठीक एक दिन पहले और भारत पाक युद्ध के पहले यहाँ का पानी सचमुच काला हो गया था।

#_विजय_पर्व
दशहरे का उत्सव शक्ति और शक्ति का समन्वय बताने वाला उत्सव है। नवरात्रि के नौ दिन जगदम्बा की उपासना करके शक्तिशाली बना हुआ मनुष्य विजय प्राप्ति के लिए तत्पर रहता है। इस दृष्टि से दशहरे अर्थात विजय के लिए प्रस्थान का उत्सव का उत्सव आवश्यक भी है।

भारतीय संस्कृति सदा से ही वीरता व शौर्य की समर्थक रही है। प्रत्येक व्यक्ति और समाज के रुधिर में वीरता का प्रादुर्भाव हो कारण से ही दशहरे का उत्सव मनाया जाता है। यदि कभी युद्ध अनिवार्य ही हो तब शत्रु के आक्रमण की प्रतीक्षा ना कर उस पर हमला कर उसका पराभव करना ही कुशल राजनीति है। भगवान राम के समय से यह दिन विजय प्रस्थान का प्रतीक निश्चित है। भगवान राम ने रावण से युद्ध हेतु इसी दिन प्रस्थान किया था। मराठा रत्न शिवाजी ने भी औरंगजेब के विरुद्ध इसी दिन प्रस्थान करके हिन्दू धर्म का रक्षण किया था। भारतीय इतिहास में अनेक उदाहरण हैं जब हिन्दू राजा इस दिन विजय-प्रस्थान करते थे।

इस पर्व को भगवती के 'विजया' नाम पर भी 'विजयादशमी' कहते हैं। इस दिन भगवान रामचंद्र चौदह वर्ष का वनवास भोगकर तथा रावण का वध कर अयोध्या पहुँचे थे। इसलिए भी इस पर्व को 'विजयादशमी' कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि आश्विन शुक्ल दशमी को तारा उदय होने के समय 'विजय' नामक मुहूर्त होता है। यह काल सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है। इसलिए भी इसे विजयादशमी कहते हैं।

ऐसा माना गया है कि शत्रु पर विजय पाने के लिए इसी समय प्रस्थान करना चाहिए। इस दिन श्रवण नक्षत्र का योग और भी अधिक शुभ माना गया है। युद्ध करने का प्रसंग न होने पर भी इस काल में राजाओं (महत्त्वपूर्ण पदों पर पदासीन लोग) को सीमा का उल्लंघन करना चाहिए। दुर्योधन ने पांडवों को जुए में पराजित करके बारह वर्ष के वनवास के साथ तेरहवें वर्ष में अज्ञातवास की शर्त दी थी। तेरहवें वर्ष यदि उनका पता लग जाता तो उन्हें पुनः बारह वर्ष का वनवास भोगना पड़ता। इसी अज्ञातवास में अर्जुन ने अपना धनुष एक शमी वृक्ष पर रखा था तथा स्वयं वृहन्नला वेश में राजा विराट के यहँ नौकरी कर ली थी। जब गोरक्षा के लिए विराट के पुत्र धृष्टद्युम्न ने अर्जुन को अपने साथ लिया, तब अर्जुन ने शमी वृक्ष पर से अपने हथियार उठाकर शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी। विजयादशमी के दिन भगवान रामचंद्रजी के लंका पर चढ़ाई करने के लिए प्रस्थान करते समय शमी वृक्ष ने भगवान की विजय का उद्घोष किया था। विजयकाल में शमी पूजन इसीलिए होता है।

आश्विनस्य सिते पक्षे दशम्यां तारकोदये।
स कालो विजयो ज्ञेयः सर्वकार्यार्थसिद्धये॥

मम क्षेमारोग्यादिसिद्ध्‌यर्थं यात्रायां विजयसिद्ध्‌यर्थं।
गणपतिमातृकामार्गदेवतापराजिताशमीपूजनानि करिष्ये॥

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थों धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥

दिनांक - ०५.१०.२०२२
---#_राज__सिंह_---

©Raju Mandloi #दशहरा
8ac7ac7305c3224797ecf2cdc2a9c6d5

Raju Mandloi

#बोद्ध_धर्म
भगवान बुद्ध के माता-पिता हिन्दू थे…स्वयं बुद्ध ने हिन्दू धर्म को कभी त्यागा नहीं,सदैव जनेऊ पहनते थे तो सनातन में ही बौद्ध का जन्म हुआ कभी सनातन देवी देवता को गलत नहीं कहे थे फिर ये कौन बौद्ध धर्म को भंग कर आडंबर फैला रहा है तथा नया पंथ या सम्प्रदाय चलाया नहीं फिर ये कौन उनके अनुयायी हैं जो सनातन धर्म के देवताओं को गाली देकर अपने आप को बोद्ध धर्म के प्रवर्तक बता रहे हैं…
निश्चित ही यह बहुत बड़ा षड्यंत्र चल रहा है…देश व समाज को तोड़ने वाली शक्तियों का हाथ है…
जब भगवान बुद्ध ने अलग पंथ या सम्प्रदाय नहीं बनाया तो बोद्ध धर्म में जाति भेद कैसे होने लग गया…कैसे अगडा-पिछड़ा होने लग गया :
अगडा-    हीनयान,महायान,वज्रयान,भीमयान,थेरवाड,त्रिलोक,दरा,फल्पा,थल्पा,बोडो,नोनो इत्यादि।
पिछड़ा-बुराकुमिन,यांगबान,बीकजोंग,वज्रधरा,मोन,गराबा इत्यादि…इनका तो बोद्ध मन्दिरों में जाना तक वर्जित है भिक्षु बनना तो बहुत दूर की बात है।
ये सब क्या है…? भगवान बुद्ध ने इतने सारे मत नहीं बनाये थे तो ये कब और कहाँ से बन गये…विचार करना…
असली बोद्ध मतावलंबियों को सावचेत व सावधान होने की ज़रूरत है यदि ये सब होता तो भीमराव अम्बेडकर क्यों बोद्ध धर्म अपनाते…?

जागो बौद्ध धर्मावलंबियों-जागो-जागो
कोई दुष्ट कुचक्र चल रहा हैं बौद्धिष्टों को भटका रहा है ।

©Raju Mandloi #बुद्ध
8ac7ac7305c3224797ecf2cdc2a9c6d5

Raju Mandloi

*"ऑटोफैगी"*
( उपवास )

कभी सोचा आपने कि आधुनिक विज्ञान ने कैंसर का इलाज क्यों नहीं ढूँढा ??

आप हैरान होंगे कि आधुनिकता ' के दुष्चक्र में फंस कर, इसके सहज सरल भारतीय पद्धति के इलाज को भी सामने ही नहीं आने देना चाहता।

 डबल्यूएचओ कहता है कि विश्व में 9.6 मिल्यन लोग मरते हैं, एक साल में.
 इस बीमारी से 96 लाख लोग।
 8 लाख लोग हर महीने मारे जाते हैं। 
27 हज़ार प्रतिदिन ये दुनिया छोड़ देते हैं।

भारत में 14-15 लाख लोग प्रतिवर्ष इसके शिकार होते हैं .
 1.16 लाख प्रतिमाह।
 3 हज़ार 900 प्रतिदिन।

कुल मिला के भारत का इस कर्क रोग से मृत्यु में योगदान 8-9 प्रतिशत का है। 

बहुत बड़ी मार्केट है। वैसे अब लोग ठीक भी होने लगे हैं, पर पैसा बहुत लग जाता है।

जापान के “योशिनोरी ओसुमी” को मेडिसिन के क्षेत्र में 'नोबेल पुरस्कार' दिया गया था। उनकी थेरेपी *ऑटोफैगी* (autophagy) के लिए, जो कैन्सर के लिए बहुत उपयोगी है। वैसे तो ऑटोफैगी बहुत पुरानी थेरेपी है। मगर इन्होंने सिद्ध किया होगा, तभी तो नोबेलप्राईज इन को मिल गया।

ऑटोफैगी का मतलब होता है - ऑटो मतलब स्वयं को, फ़ैगी मतलब खाना। स्वयं को खाना या स्वयं को खा जाना।

इस ऑटोफैगी में ज़्यादा कुछ नहीं करना है, केवल उपवास करना है। "योशिनोरी ओसुमी" ने 72 घंटे का उपवास बताया था। मतलब 3 दिन। केवल पानी पीना है खाना भी कुछ नहीं। 

तो 'योशिनोरी ओसुमी' की *ऑटोफैगी थेरेपी* बहुत सी बीमारियों के आने से पहले का इलाज है। 
लेकिन दवाई मार्केट भी बहुत बड़ा है, इसलिए इसके बारे में कम ही बात होती है। फिर विवाद जोड़ा गया कि ये तो भारत में हज़ारों साल से होता आया है। साप्ताहिक उपवास (सोमवार, मंगलवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार, रविवार), पाक्षिक (एकादशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावस्या), मासिक, विशेष पर्व (नवरात्रि) तीज, छठ इत्यादि का व्रत यही तो है।

कैन्सर के सेल सब के शरीर में होते हैं। फिर जब ये किसी कारणवश अनियंत्रित हो जाते हैं, तो बीमारी का रूप ले लेते हैं। 
ऑटोफैगी के उपवास से हमारी स्वस्थ कोशिकाएं इन बीमार कोशिकाओं को खा जाती है, जिससे इस के फैलने की संभावना कम हो जाती हैं। बस इतना सा है ऑटोफैगी, इतनी सी बात के लिए नोबेल मिल गया।

पहले भारत में रविवार की छुट्टी जैसा कुछ नहीं था। यहाँ के स्त्री पुरुष स्वस्थ रहते थे. हफ़्ते के सातों दिन काम करते थे। मगर महीने की छः छुट्टियाँ मिलती थी। 

तीन पूर्णमासी को, तीन अमावस्या को। पूर्णमासी से एक दिन पहले, एक पूर्णमासी को, एक उससे अगले दिन।
 ऐसी ही प्रक्रिया अमावस्या को भी अपनायी जाती थी.

ये तीन दिन छुट्टी मिलती थी, जिस में आप उपवास करो। शरीर का विषहरण (detoxification) करो और स्वस्थ रहो। पृथ्वी में ज्वार-भाटा भी इन्हीं दिनो में आता है। 
कहा गया है “यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे” अर्थात जो ब्रह्माण्ड में है, वो ही शरीर में है। अब पृथ्वी के जल में ज्वार-भाटा आता है, तो शरीर के जल में भी आता है।
 इसलिए इन तीन दिनों में उपवास करने की बात कही गयी है। तीन दिन मतलब 72 घंटे, ऑटोफैगी।

चलिए छोड़िए। आप भी 24, 36 और 72 घंटे का उपवास करें. साल में एक दो बार. फिर अमेरिका, लंदन तो क्या, पड़ोस के डॉक्टर के पास जाने की भी ज़रूरत नहीं पड़ेगी। 
ध्यान रहे यदि 72 घंटे का नहीं कर सकते, तो 15 घंटे से शुरुआत करें, केवल पानी लें, अन्न नहीं।

इस भूलोक में हम केवल यात्री हैं. थोड़ी देर विश्राम करने के लिए यहां रुके हैं. यात्रा बहुत लम्बी है. ये भूलोक केवल एक धर्मशाला है, मंज़िल नहीं।

©Raju Mandloi #Anticorruption
loader
Home
Explore
Events
Notification
Profile