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श्रवणकुमार 'मुफ़लिस'

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श्रवणकुमार 'मुफ़लिस'

सुप्रभात, मित्रो:
एक ग़ज़ल दिल से:
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मौत के सौदागरों की सादगी को देखिए,
हाशिये पर रख दिया है जिंदगी को देखिए।

हर तरफ़ फैली सियासत राहबर भटके हुए,
दर्द में पिसते हुए हर आदमी को देखिए।

बेज़ुबानों से हमें शिकवा नहीं है, साथियो,
पर ज़ुबाँ वालों की गहरी ख़ामुशी को देखिए।

साज़िशें इन अंधकारों की यहां नाकाम हों,
इसलिए यह बेक़रारी रोशनी की देखिए।

धर्म को धंधा बना डाला यहां हर क़ौम ने,
एक दूजे के लिए इस बेरुख़ी को देखिए।

देख लेन सांस पर भारी पड़ेगी ये हवा,
हर तरफ़ छाए ज़हर की ताजगी को देखिए।

एक सहरा ज़िंदगी के हर तरफ़ फैला हुआ,
प्यार के जज़्बात की फ़िर तिश्नगी को देखिए।

टूटकर बिखरा हुआ फ़िर भी यहां ख़ुशहाल है,
एक 'मुफ़लिस' की हमारे बेख़ुदी को देखिए।
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*श्रवण कुमार उर्मलिया*
2122/2122/2122/212

©श्रवणकुमार 'मुफ़लिस' #Friend
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श्रवणकुमार 'मुफ़लिस'

सुप्रभात, मित्रो: एक नई ग़ज़ल दिल से:
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सब के हिस्से में ज़रा सी ज़िंदगी रह जायगी,
इन अंधेरों में कहीं कुछ रोशनी रह जायगी।

उनकी चाहत में अगर हम बेखबर रहने लगे,
होश ग़ुम हो जायगा बस बेख़ुदी रह जायगी।

आजकल इन बस्तियों में कौन ज़िंदा है कहीं,
चीख़ने वालों के हिस्से ख़ामुशी रह जायगी।

मौत के सौदागरों पर ग़र भरोसा कर लिया,
लाश के हिस्से बुतों की बंदगी रह जाएगी।

जब हमें सूरज की आदत ही नहीं इस मुल्क में,
इसलिए हमसे बिछड़ कर चांदनी रह जायगी।

उनके घर कालीन पर चलने की हिम्मत ही नहीं,
कह न दें पैरों से उनमें गंदगी रह जायगी।

उम्र भर कितनी जुटाओगे यहाँ पर रौनकें,
रुख़सती के वक्त तो बस सादगी रह जायगी।

रंग-रोगन के छलावों में भटकती जिंदगी,
साथ जब कोई न होगा, 'मुफ़लिसी' रह जायगी।
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2122/2122/2122/212
श्रवण कुमार 'मुफ़लिस'

©श्रवणकुमार 'मुफ़लिस' #ज़िंदगी_तुझसे_प्यार_बहुत 

#Sky
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श्रवणकुमार 'मुफ़लिस'

आज बहुत दिनों बाद यादों का एलबम खोलकर देखा,
न जाने कितने अफ़सानों का दर्द छलक आया आंखों में।

©श्रवणकुमार 'मुफ़लिस' #meltingdown
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श्रवणकुमार 'मुफ़लिस'

आज बहुत दिनों बाद अपना 
एलबम खोलकर देखा,
न जाने कितने अफ़सानों का दर्द छलक आया आंखों में।

©श्रवणकुमार 'मुफ़लिस' #meltingdown
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श्रवणकुमार 'मुफ़लिस'

आज बहुत दिनों बाद 
अपना एलबम खोलकर देखा,
न जाने कितने अफ़सानों का दर्द सिमट आया आंखों में। 
*श्रवण कुमार*

©श्रवणकुमार 'मुफ़लिस' #meltingdown
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श्रवणकुमार 'मुफ़लिस'

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अब तक थे सारे ज़ख़्म भरे हुए,
आई बारिशें तो वे फ़िर हरे हुए,
तमन्नाओं के धीरे-धीरे पंख उगे,
जागे फ़िर से वे ख़्‍वाब मरे हुए।
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©श्रवणकुमार 'मुफ़लिस'

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श्रवणकुमार 'मुफ़लिस'

सुप्रभात, मित्रो: एक ग़ज़ल आपके लिए :
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दिले-नाशाद को हर हाल में मैं शाद रखता हूँ,
तुझे मैं भूल जाऊं इसलिए बस याद रखता हूँ।

यहां पर ज़िन्दगी के हमसफ़र हैं दर्द-तनहाई,
ख़ुशी को मैं यहां ख़ुद से बहुत आज़ाद रखता हूँ।

परिंदों की तरह बेताब जब भी हों तमन्नाएं,
तसल्ली और अपनी ज़र्फ़ का सैयाद रखता हूँ।

तुझे लिखने की ख़ातिर हर्फ़ ये सारे अधूरे हैं,
तभी मैं सिर्फ़ ढाई हर्फ़ ही आबाद रखता हूँ।

हमेशा जीतने की होड़ में पागल हुई दुनिया,
मग़र मैं जीत कर भी हार की बुनियाद रखता हूँ।

हुआ हूँ प्यार में मुफ़लिस भले तू भूल जा हमको,
तेरी यादों को मैं दिल में बहुत नाबाद रखता हूँ।
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©श्रवणकुमार 'मुफ़लिस' #WorldAsteroidDay
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श्रवणकुमार 'मुफ़लिस'

सुप्रभात मित्रो: एक ग़ज़ल :
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मेरी ख़ातिर मुझी को सोचता है,
मेरा मैं अब मुझी को सोचता है।

मुझे ठुकरा चुकी है जिंदगी पर,
मेरा दिल ज़िंदगी को सोचता है।

कभी जिसने ख़बर न ली हमारी,
वही मेरे लिए अब सोचता है।

ज़माने में बहुत है ख़ुदपरस्ती,
उसे जो सोचना है सोचता है।

वफ़ा के नाम पर काफ़िर कहेंगे,
मेरी ख़ातिर तू उल्टा सोचता है।

यहां ज़िंदा है सहरा प्यास लेकर,
समंदर रेत की कब सोचता है।

बड़ी बातें बड़ी तक़रीर उनकी,
सियासत सिर्फ़ ख़ुद की सोचता है।

वफ़ा तुझमें कहाँ से आ गई अब,
सुना है तू भी मुझको सोचता है।

वफ़ा का ज़िक्र होता है यहां जब,
तेरा 'मुफ़लिस' तुझी को सोचता है।
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*श्रवण कुमार 'मुफ़लिस'

©श्रवणकुमार 'मुफ़लिस' #Flower
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श्रवणकुमार 'मुफ़लिस'

सुप्रभात, सभी को :: ग़ज़ल दिल से ::
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मेरे ग़म पर ज़माने की अलग तर्ज-ए-बयानी है,
कोई कहता ये आंसू हैं, कोई कहता कि पानी है।

कहाँ ले जाऊं ज़ख्मों को, जहाँ इनको सुकूं आये,
यहाँ लगता है जैसे प्यार का मरहम भी फ़ानी है।

सदा दिल से निकलती है मग़र सुनता नहीं कोई,
करें ग़र दिल की बातें वो हमारी बदज़ुबानी है।

नहीं आती इधर अक्सर, ज़रा सी ज़िन्दगी, यारो,
यहाँ पर दर्द ही बस ज़िन्दगी की इक निशानी है।

हमीं तारीफ़ के क़ाबिल हमीं से है गिला-शिकवा,
मुहब्बत इक तरफ़ है, इक तरफ़ ये ज़िंदगानी है।

ज़माने की रवायत से किसे होता गिला, लेकिन,
करें क्या रात-दिन बस दर्द की रस्में निभानी है।

ज़रा सा देख जा आकर यहाँ पर हाल 'मुफ़लिस' का,
बहुत बिखरी हुई सी आजकल उसकी कहानी है।
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*श्रवणकुमार 'मुफ़लिस'*

©श्रवणकुमार 'मुफ़लिस' #Drops
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श्रवणकुमार 'मुफ़लिस'

सुप्रभात : ग़ज़ल आपके लिए दिल से :
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भूख से क्यों हैं ख़फ़ा ये रोटियाँ,
प्यास पर लगने लगीं पाबंदियाँ।

घात में हैं भेड़िये चारो तरफ़,
बच न पाएंगी हमारी बेटियाँ।

रोशनी की फ़िर है सरकारी खबर,
फ़िर जलाना है यहां पर झुग्गियाँ।

सिर्फ़ तक़रीरें यहाँ किस काम की,
उफ ! दलालों सी तुम्हारी बोलियाँ।

छल-कपट ज़्यादा दिनों चलता नहीं,
कब तलक देते रहोगे गोलियां ?

अब सियासत के नहीं हम मोहरे,
कारगर होंगी न अब तुकबंदियाँ।

रहनुमा हमको अलग करने लगे,
अब वगावत की गिरेंगी बिजलियाँ।

भूल जाएगा तुझे 'मुफ़लिस' मगर,
याद रक्खेगा तेरी बस शोखियाँ।
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2122/2122/21

©श्रवणकुमार 'मुफ़लिस' #Corona_Lockdown_Rush
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