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Anita Agarwal

मन का आँगन #Motivational

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heart  

कितना अनोखा है ना ये मन का आँगन! 

पल मे खिल जाता
तो पल मे मुरझाता है। 
खुशी और गम का झोंका 
हर क्षण आता जाता है।। 

कभी फूलोँ सा संवर उठता है
 बादलों की गड़गड़ाहट से भी। 
कभी कुम्हला जाता है
 किंचित धूप की आहट से भी ।। 

कोई बरसों से संजोया ख्वाब
सच होकर बरस जाता है 
और कभी हकीकत की जमीन पर 
 अनायास डर जाता है।। 

इस आँगन को चाहिए
विश्वास और दृढ़ता की खाद।
हर बाधा को पार कर तब,
रहेगा सालों साल आबाद

©Anita Agarwal मन का आँगन

MAHENDRA SINGH PRAKHAR

#Ganesh_chaturthi हे गौरा के लाल , पधारो आँगन में । भक्त खडे हैं आज , सब देखो आव्हान में ।। लिए पान ओ फूल , सजाए बैठे थाली । करके हैं जयका #कविता

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White हे गौरा के लाल , पधारो आँगन में ।
भक्त खडे हैं आज , सब देखो आव्हान में ।।
लिए पान ओ फूल , सजाए बैठे थाली ।
करके हैं जयकार , बजाकर हम सब ताली ।। 
प्रथम पूज्य हो देव , हमारे तुम ही देवा ।
करते रहते नित्य , तुम्हारी हम सब सेवा ।।
समझ न पाऊँ आज , करूँ मैं कैसे पूजा ।
राह दिखाओ आप , नही कोई मेरा दूजा ।।
मैं बालक नादान , न पूजन अर्चन जानूँ ।
करो क्षमा सब भूल , आपको भगवन मानूँ ।।
करो कष्ट अब दूर, पड़े अब किस अड़चन में ।
आन पड़े हैं कष्ट , हमारे कुछ जीवन में ।।
दर्शन दो गजराज , भक्त के तुम्हीं सहायक ।
सुना सभी को आप , दियो हो शुभ फल दायक ।।


महेन्द्र सिंह प्रखर

©MAHENDRA SINGH PRAKHAR #Ganesh_chaturthi 

हे गौरा के लाल , पधारो आँगन में ।
भक्त खडे हैं आज , सब देखो आव्हान में ।।
लिए पान ओ फूल , सजाए बैठे थाली ।
करके हैं जयका

MAHENDRA SINGH PRAKHAR

गीत :- आजादी का दिवस मनाऊँ ,  भूखा अपना लाल सुलाऊँ । कर्ज बैंक का सर के ऊपर, #कविता

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गीत :-
आजादी का दिवस मनाऊँ ,भूखा अपना लाल सुलाऊँ ।
कर्ज बैंक का सर के ऊपर, खून बेचकर उसे चुकाऊँ ।।
आजादी का दिवस मनाऊँ....

सरकारें करती मनमानी , 
पीने का भी छीने पानी ।
कैसे जीते हैं हम निर्धन ,
 कैसे तुमको व्यथा सुनाऊँ ।। आजादी का दिवस मनाऊँ...

मैं ही एक नहीं हूँ निर्धन , 
आटा दाल न होता ईर्धन ।
जन-जन का मैं हाल सुनाऊँ , 
आओ चल कर तुम्हें दिखाऊँ ।। आजादी का दिवस मनाऊँ...

शिक्षा भी व्यापार हुई है , 
महँगी सब्जी दाल हुई है
आमद हो गई है आज चव्न्नी, 
कैसे घर का खर्च चलाऊँ । आजादी का दिवस मनाऊँ...

सभी स्वस्थ सेवाएं महँगी ,
जीवन की घटनाएं महँगी ।
आती मौत न जीवन को,
फंदा अपने गले लगाऊँ ।। आजादी का दिवस मनाऊँ...

ज्यादा हुआ दूध उत्पादन,
बिन पशु के आ जाता आँगन ।
किसको दर्पण आज दिखाऊँ 
दिल कहता शामिल हो जाऊँ ।। आजादी का दिवस मनाऊँ.....
आजादी का दिवस मनाऊँ ,भूखा अपना लाल सुलाऊँ ।
महेन्द्र सिंह प्रखर

©MAHENDRA SINGH PRAKHAR गीत :-


आजादी का दिवस मनाऊँ ,

 भूखा अपना लाल सुलाऊँ ।

कर्ज बैंक का सर के ऊपर,

Prakhar Tiwari

#alone_sad_shayri हिंदी कविता कविता कोशवो सावन की पहली बारिश है, मन में जो नयी ख्वाहिश है। मिट्टी की सौंधी ख़ुशबू में, रहती एक प्यारी

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Arman habib islampuri

#lovepoetry कितना मीठा होगा जामुन उसकी आँगन का हिंदी शायरी शेरो शायरी लव शायरी खूबसूरत दो लाइन शायरी शायरी #ArmanHabib Poetry chirai #Fruits #chiraiyakot

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लब को जब भी  खोले हैं वो आकर  तितली बैठे हैं 
कितना शीरीं कितना मीठा लहजा होगा साजन का

अपने  मीठे  हाथों  से  हर  दिन  वो  पानी  देती  है
सोचो कितना मीठा होगा जामुन उसकी आँगन का

©Arman habib islampuri #lovepoetry कितना मीठा होगा जामुन उसकी आँगन का       हिंदी शायरी शेरो शायरी लव शायरी खूबसूरत दो लाइन शायरी शायरी #ArmanHabib #Poetry #chirai

धाकड़ है हरियाणा

#गौमती की मौत #घर के आँगन में ही दफनाया #वीडियो

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MAHENDRA SINGH PRAKHAR

गीत :- उलझ रहा है निशिदिन मानव , जिनके नित्य विचारो से । भाषण देते बन अभिनेता , सत्ता के गलियारों से ।। उलझ रहा है निशिदिन मानव .... छोड़ सभ #कविता

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White गीत :-
उलझ रहा है निशिदिन मानव , जिनके नित्य विचारो से ।
भाषण देते बन अभिनेता , सत्ता के गलियारों से ।।
उलझ रहा है निशिदिन मानव ....

छोड़ सभी वह रिश्ते-नाते, बैठे ऊँचे आसन पे ।
पहचाने इंसान नही जो , भाषण देते जीवन पे ।।
जिसे खेलना पाप कहा था , मातु-पिता औ गुरुवर ने ।
उसी खेल का मिले प्रलोभन , सुन लो अब सरकारों से ।।
उलझ रहा है निशिदिन मानव .....

मातु-पिता बिन कैसा जीवन , हमने पढ़ा किताबों में ।
ये बतलाते आकर हमको , दौलत नही हिसाबों में ।।
इनके जैसा कभी न बनना , ये तो हैं खुद्दारों में ।
दया धर्म की टाँगें टूटी , इन सबके व्यापारो से ।।
उलझ रहा है निशिदिन मानव....

नंगा नाच भरे आँगन में, इनके देख घरानों में ।
बेटी बेटा झूम रहे हैं , जाने किस-किस बाहों में ।।
अपने घर को आप सँभाले, आया आज विचारों में ।
झाँक नही तू इनके घर को , पतन हुए संस्कारो से ।।
उलझ रहा है निशिदिन मानव.....

दौड़ रहे क्यों भूखे बच्चे , तेरे इन दरबारों में ।
क्या इनको तू मान लिया है , निर्गुण औ लाचारों में ।।
बनकर दास रहे ये तेरा , करे भोग भण्डारों में ।
ऐसी सोच झलक कर आयी , जग के ठेकेदारों से ।।
उलझ रहा है निशिदिन मानव ...

बदलो मिलकर चाल सभी यह , प्रकृति बदलने वाली है ।
भूखे प्यासे लोगो की अब , आह निकलने वाली है ।
हमने वह आवाज सुनी है , चीखों और पुकारों से ।
आने वाले हैं हक लेने , देखो वह हथियारों से ।।
उलझ रहा है निशिदिन मानव ....

उलझ रहा है निशिदिन मानव , जिनके नित्य विचारो से ।
भाषण देते वे अभिनेता , सत्ता के गलियारों से ।।

महेन्द्र सिंह प्रखर

©MAHENDRA SINGH PRAKHAR गीत :-
उलझ रहा है निशिदिन मानव , जिनके नित्य विचारो से ।
भाषण देते बन अभिनेता , सत्ता के गलियारों से ।।
उलझ रहा है निशिदिन मानव ....

छोड़ सभ
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