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Anil Siwach
|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 12 ।।श्री हरिः।। 11 - महत्संग की साधना 'मेरी साधना विफल हुई।' गुर्जर राजकुमार ने एक लम्बी श्वास ली। वे अपने विश्राम-कक्ष में एक चन्दन की चौकी पर धवल डाले विराजमान थे। ग्रन्थ-पाठ समाप्त हो गया था और जप भी पूर्ण कर लिया था उन्होंने। ध्यान की चेष्टा व्यर्थ रही और वे पूजा के स्थान से उठ आये। राजकुमार ने स्वर्णाभरण तो बहुत दिन हुए छोड़ रखे हैं। शयनगृह से हस्ति-दन्त के पलंग एवं कोमल आस्तरण भी दूर हो चुके हैं। उनकी भ्रमरकृष्ण घुंघराली अलकें सुगन्धित तेल का सिञ्च
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|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 10 ।।श्री हरिः।। 17 - सात्विक त्याग कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेर्जुन। संगत्यक्त्वा फलं चैव स त्याग: सात्विको मत:।। (गीता 18।9)
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|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 10 ।।श्री हरिः।। 2 - मा कर्मफलहेतुर्भूः 'आप रक्षा कर सकते हैं - आप बचा सकते हैं मेरे बच्चे को। वह वृद्धा क्रन्दन कर रही थी।' आप योगी हैं। आप महात्मा हैं। मेरे और कोई सहारा नहीं है।' उस वृद्धा का एकमात्र पुत्र रोगशय्या पर पड़ा था। आज तीन महीने हो गये, कुछ पता नहीं चलता कि उसे हुआ क्या है। उसे भूख लगती नहीं, मस्तक में भयंकर पीड़ा होती है। पड़े-पड़े कराहता तो क्या, आर्तनाद किया करता है।
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|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 9 || श्री हरि: || 1 - बद्ध कौन? 'बद्धो हि को यो विषयानुरागी' अकेला साधु, शरीरपर केवल कौपीन और हाथमें एक तूंबीका जलपात्र। गौर वर्ण, उन्नत भाल, अवस्था तरुणाई को पार करके वार्धक्यकी देहली पर खडी। जटा बढायी नहीं गयी, बनायी नहीं गयी; किन्तु बन गयी है। कुछ श्वेत-कृष्ण-कपिश वर्ण मिले-जुले केश उलझ गये हैं परस्पर।
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|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 8 ।।श्री हरिः।। 15 - कलियुग के अन्त में आपने यदि वैज्ञानिक कही जाने वाली कहानियों में से कोई पढी हैं तो देखा होगा कि किस प्रकार दो-चार शती आगे की परिस्थिति का उनमें अनुमान किया जाता है और वह अनुमान अधिकांश निराधार ही होता है। यह कहानी भी उसी प्रकार की एक काल्पनिक अनुमान मात्र प्रस्तुत करती है; किंतु यह सर्वथा निराधार नहीं है। पुराणों में कलियुग के अन्त समय का जो वर्णन है, वह सत्य है; क्योंकि पुराण सर्वज्ञ भगवान् व्यास की कृति है। उनमें भ्रम, प्रमाद सम्भव न
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1 - बद्ध कौन? 'बद्धो हि को यो विषयानुरागी' अकेला साधु, शरीरपर केवल कौपीन और हाथमें एक तूंबीका जलपात्र। गौर वर्ण, उन्नत भाल, अवस्था तरुणाई को पार करके वार्धक्यकी देहली पर खडी। जटा बढायी नहीं गयी, बनायी नहीं गयी; किन्तु बन गयी है। कुछ श्वेत-कृष्ण-कपिश वर्ण मिले-जुले केश उलझ गये हैं परस्पर। धूलिसे भरे चरण, कहीं दूरसे चलते आनेकी श्रान्ति। मुखकी घनी दाढ़ी पर भी कुछ धूलि के कण हैं। ललाटपर बडी-बडी श्वेदकी बूंदे झलमला आयी हैं। मध्याह्न होने को आया, साधुको अब विश्राम करना चाहिये।
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