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मैं ही हूँ दुश्मन मेरा, हाँ मैं खुद को सताता हूँ क

मैं ही हूँ दुश्मन मेरा, हाँ मैं खुद को सताता हूँ
कहाँ की मैंने गलतियां मैं खुद को बताता हूँ
दिन थे वो भी क्या जब जी रहा था मैं जिंदगी
याद करके बीते लम्हे दिल खुद का दुखाता हूँ

क्षितिज सी थी चाह मेरी जिसे न बोल पाता हूँ
बंध करके पाश में अब बस रिश्ते निभाता हूँ
दर्द भर कर गले तक जब टपक रहा नयन से
दर्द छुपा कर दुनिया से बेमतलब मुस्कुराता हूँ

भीड़ में भी जब कभी अकेला खुद को पाता हूँ
खुद से ही मैं बात करता खुद को ही सुनाता हूँ
कट रही जब जिंदगी जैसे जल रही हो तिलिया
दीये की तरह बनने को दीये सा जलता जाता हूँ

अफसोस अब किस बात का गम में गुनगुनाता हूँ
याद कोई जब  करता नही मैं भी गम भुलाता हूँ
पांव में कांटे चुभें थे छोड़ कर अपने ही आगे बढ़े
था मोम पिघल गया अब खुद को पत्थर बताता हूँ।

©SHASHIKANT
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