वो सुबह कभी तो आएगी, इन काली सदियों के सर से जब रात का आंचल ढलकेगा, जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर झलकेगा, जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नगमे गाएगी, वो सुबह कभी तो आएगी जिस सुबह की ख़ातिर जुग जुग से हम सब मर मर के जीते हैं , जिस सुबह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं, इन भूकी प्यासी रूहों पर इक दिन तो करम फ़रमाएगी वो सुबह कभी तो आएगी माना कि अभी तेरे मेरे अरमानों की क़ीमत कुछ भी नहीं मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर इन्सानों की क़ीमत कुछ भी नहीं इन्सानों की इज्जत जब झूठे सिक्कों में न तोली जाएगी वो सुबह कभी तो आएगी!!