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भटके हुओं को राह दिखाते हैं राम जी l बढ़ कर गले से

भटके हुओं को राह दिखाते हैं राम जी l
बढ़ कर गले से अपने लगाते हैं राम जी ll

निरबुद्धि हम भले ही उन्हें भूल जायें पर,
भक्तों को नहीं अपने भुलाते हैं राम जी l

उनके चरण की धूल भी अमोल है सुनो,
पाषाण में भी प्राण बसाते हैं राम जी l

करुणा, दया, क्षमा ह्रदय में जिनके बसी है,
उनके ह्रदय में डेरा जमाते हैं राम जी l

छोटा-बड़ा नहीं है कोई उनकी दृष्टि में,
शबरी के बेर प्रेम से खाते हैं राम जी l

कण-कण में कृपा उनकी बरसती है इस तरह,
तिनके को अपना बाण बनाते हैं राम जी l

उनकी शरण में सुख 'विचित्र' पाता है ये मन,
आओ शरण में अपनी बुलाते हैं राम जी l

©सुनील 'विचित्र'
  #ग़ज़ल_विचित्र
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