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कभी-कभी मन ही मन यह सोचता हूँ मैं रिक्

कभी-कभी मन ही मन यह सोचता हूँ मैं
रिक्तापूर्ण हृदय पर एक...
तार्किक स्याही संग बहकर
दिमागी कलम से देखता हूँ मैं।
आखिर इस जाति-धर्म पिंजरे से 
कब-तक स्वतंत्र होगा मनुष्य।

सहस्त्रों वर्षों से बंद है मानवता
इसी पिंजरे में पर अजीब है
बिना पंखों को फैलायें पक्षी
मानसिक गुलामी में खुश हैं।
विस्मृत हुए वें उन्मुक्त गगन है।

सोच रहा हूँ रक्तहीन क्रांति लिखूं
वैचारिकक्रांति जिसमें रक्त न बहे
पर कलम खामोश हो जाती है...
स्याही साथ नही देती कलम का।
आखिर स्वतंत्र भी उन्हें किया जाए
जिनको गुलामी का एहसास है।
उन पक्षियों को कौन आजाद करें
जिन्होंने परतंत्रता को भाग्य समझा।

कभी अनमने भाव से ही सही देखों!
पिंजरे से स्वतंत्र रहकर इस जहां को
यह समस्त धरती यह सकल गगन
बस! तुम्हारा... तुम्हारे लिए ही है।
युग बीत गये अब तो आजाद रहे
समतामूलक समाज स्थापित हो
हम सभी उसमें प्रेमपूर्वक रहे.....!!

©Anil Ray
  ❤️🧡💛💚💙💜🤎🤍🩷🩶

मन ही मन यह सोचता हूँ मैं
रिक्तापूर्ण हृदय पर एक...
तार्किक स्याही संग बहकर
दिमागी कलम से देखता हूँ मैं।
आखिर इस जाति-धर्म पिंजरे से 
कब-तक स्वतंत्र होगा मनुष्य।
anilray3605

Anil Ray

Bronze Star
Growing Creator

❤️🧡💛💚💙💜🤎🤍🩷🩶 मन ही मन यह सोचता हूँ मैं रिक्तापूर्ण हृदय पर एक... तार्किक स्याही संग बहकर दिमागी कलम से देखता हूँ मैं। आखिर इस जाति-धर्म पिंजरे से कब-तक स्वतंत्र होगा मनुष्य। #HUmanity #Independence #कविता #casteism #Twowords #nojotohindipoetry #communalism #egalitariansociety #Anil_Kalam #Anil_Ray

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