गोल्ड़न जुबली वाले दिन क़े विगत पचास वर्षों मे न जाने कितनी बार बिखरने क़े अवसर आये मेरे जीवन मे और हर बार संभाला है"उसने " मुझे अपना समझ कर न जाने कितनी त्रासदियां क़े दुख आये जीवन मे इस दरमियान लेकिन हर दुख क़े सामने "वो " डटी रही पहाड़ बन कर और निभाती रही मेरे कर्तव्यों को अपना समझ कर मेरी हर छोटी मोटी बीमारी मे तने रहे उसके रतजगे छतरी बन कर यध्यपि उसका ईश्वर अलग था और मेरा अलग लेकिन उन ईश्वरों मे कभी हुई नहीं. टकराहट हमारा तालमेल देख कर मेरी मानवीय भूले हो या अमानवीय अपराध सभी को " वो " करतीं रही नजर अंदाज़ मेरी नादानी समझ कर ©Parasram Arora गोल्डन जुबली और विगत स्मृतियाँ