जिसे देख पशेमाँ है चौदहवीं का चाँद, वो महताब मेरे आंगन में उतरा है आज मुद्दातों से जिसे निहारता रहा मैं दूर से, बाहों में समाया चाँद सा वो चेहरा है आज काफी थी डुबोने को सुरमई आँखें, क़यामत है जो रुख से नकाब उतरा है आज सादगी ही क्या कम कातिल है उसकी, जो तसल्ली से वो बना संवरा है आज जिन बेबाक नज़रों के घायल हजार हैं, वल्लाह उन पर हया का पहरा है आज हुस्न चाँद का निखरा है घटा के साए में, के शानो पे उसके जुल्फ बिखरा है आज निखरे सहर के साथ निखरती है रंगत, मिसाल है हसीं शाम का रंग गहरा है आज मुद्दतों दो बूंद का जो प्यासा रहा तेजस, उसके इश्क़ से सराबोर वो सहरा है आज