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मैं रहूं या ना रहूं, चंद रोज़ ही सही, मेरा नाम तो

मैं रहूं या ना रहूं,
चंद रोज़ ही सही,
मेरा नाम तो रहेगा,
पर कहां ?
क्या किसी दिल में !
क्या किसी के लब पर !
या मृत्यु प्रमाणपत्र पर !
मैं रह लूंगा इन जगहों पर,
मगर किसी दिमाग़ में नही...

उपर्युक्त इस पद्य या गद्य व्यंग्य लेख में, कुख्यात स्वघोषित कवि महोदय "अदनासा" जी यह कहने की कोशिश कर रहे है कि.. अरे छोड़ो भी, जाने क्या कहने की कोशिश कर रहा है, यह तो इमोशनल अत्याचार लिख डाला है, मगर वाजिब फ़रमाया है तो वह है, हमारे प्यारे शेक्सपियर दादा जी ने, वो यह कि, "नाम में क्या रखा है'

एक हकीकत यह भी कि, सबकुछ तो हमारा "काम" ही 
तय करता है, उसके बाद हमारा नाम पूछा जाता है...

हां.. जी ! बोलिए ?
क्या नाम है आपका ?

अरे.. भाई पता है मुझे,
चाकरी में तो पहले नाम ही पूछते है।

©अदनासा-
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