अक्सर हम अपने खालीपन पर कुछ चिपका लेते हैँ कोई डिग्रियां ले आता हैकोई पीएचडी हो जाता है कोई धन् कमा क़र अम्बानी बन जाता है कोई डॉक्टर है कोई इंजीनियर कोई मिनिस्टर हो जाता है पचीस तरह क़े पागलपन हैँ.. कोई कुछ न कुछ होता ही है.... तखटिया नेम्पलेट दरवाज़ों पर ही नहीं लगी हैँ अपने भीतर की रिक्तता पर भी ये तख्तीया लगी है....... उन तख्तियो को पढ़ लेते है और उन्हें देख क़र फूल जाते हैँ प्रसन्न हो जाते ह क़ि "कुछ हूँ " और कुछ होने का मज़ा भी ले लेते है ...... और छोटी कुर्सी से बड़ी कुर्सी पर बैठ जाते है और सोचते है " मै भी कुछ हूँ " ©Parasram Arora मै भी कुछ हूँ