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इस मुट्ठी में क्या-कुछ संभालू, जितना भी संभालूं..

इस मुट्ठी में क्या-कुछ संभालू,
 जितना भी संभालूं.. 
कुछ ना कुछ छूट ही जाता है.
कभी सपने टुट जाते हैं..
तो कभी अपने रूठ जाते हैं
जिंदगी मुट्ठी है जनाब
बाकी सब रेत...
पकड़ मजबूत करु
 तो कुछ ही बचते हैं
बाकी रेत फिसल जाते हैं

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