बेटी विदा हो गई मगर, बेटो की विदाई कौन देखा, मखमल के बिस्तर से, टूटी चारपाई कौन देखा, नौकरी पेशा है न साहब, बेटा करता भी तो क्या करता, बेटों की घर से दूरी, अपनों से जुदाई कौन देखा, जो पहनते थे धुले हुए, कपड़े मां के हाथों से, जूतो को फेंक देते थे, बिन छुए, लातों से, और बिस्तर पर बैठ कर, गरमागरम चाय मिल जाती थी, रेंट के कमरे में तब, मां तेरी बहुत याद आती थी, सुबह उठकर खुद से, खाना बनाने की जंग हो, आटा गीला हो जाए, तो लगे के मां तू संग हो, और भारी से मन को अकेले, एकाकी हो स्वयं ढांढस बंधाया, रात में तकियों पर छिपकर, बिन कराहे आंसू बहाया, मर्द होने का भार सर पर, पोंछ आंसू को मैं फिर से मुस्कुराया, और क्या था चारा इसके बजाय, क्या करें जब घर की याद आए, जी चाहता है सर पर किसी का हाथ हो, मेरी सिसकियों पर मुझको, कोई हो जो थपथपाएं, इतना घटित जब हो रहा, तब भी स्वयं को मौन देखा खुद की खुद से चल रही, हाथापाई को कौन देखा बेटी विदा हो गई मगर, बेटो की विदाई कौन देखा, ©अनुज बेटी विदा हो गई मगर, बेटो की विदाई कौन देखा, मखमल के बिस्तर से, टूटी चारपाई कौन देखा, नौकरी पेशा है न साहब, बेटा करता भी तो क्या करता, बेटों की घर से दूरी, अपनों से जुदाई कौन देखा,