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कितनी अजीब बात है ? मैं चाँद को रोज देखता हूँ, देख

कितनी अजीब बात है ?
मैं चाँद को रोज देखता हूँ,
देखता हूँ सूरज को रोज ढलते हुए,
ये तारे रोज ही तो चमकते हैं ।
पर नही देख पाता रोज जिसे वो हो तुम।
तुम्हें न देख पाना कोई गम सा तो नही है,
पर तुम्हें देखना किसी जन्नत से कम भी नही ।
तुम्हें देखना ऐसा है जैसे  तपती गर्मी में पहली बारिश का होना या फिर किसी परिंदे का पहली दफा उड़ पाना या किसी बच्चे का घुटनों के बल चलने की पहली कोशिश जैसा या किसी कवि की पहली कविता जैसा ।
सब परफेक्ट न होने के बाद भी खूबसूरत ।

पर बारिश का रोज होना भी खलने लगता है , परिंदे के लिए उड़ना एक आम बात हो जाती है ,  बच्चा दौड़ना शुरू कर देता है , कवि दोहे लिखने लगता है , जब सब परफेक्ट हो जाता है तो कुछ खास नही रहता । 

मैं नही चाहता कि तुम आम हो जाओ ।
इसलिए मैं रोज चाँद को देखता हूँ , 
देखता हूँ सूरज को ढलते हुए ,
तारों को चमकते हुए ,
पर तुम्हें रोज नही देखना चाहता । कितनी अजीब बात है ?
मैं चाँद को रोज देखता हूँ,
देखता हूँ सूरज को रोज ढलते हुए,
ये तारे रोज ही तो चमकते हैं ।
पर नही देख पाता रोज जिसे वो हो तुम।
तुम्हें न देख पाना कोई गम सा तो नही है,
पर तुम्हें देखना किसी जन्नत से कम भी नही ।
तुम्हें देखना ऐसा है जैसे  तपती गर्मी में पहली बारिश का होना या फिर किसी परिंदे का पहली दफा उड़ पाना या किसी बच्चे का घुटनों के बल चलने की पहली कोशिश जैसा या किसी कवि की पहली कविता जैसा ।
कितनी अजीब बात है ?
मैं चाँद को रोज देखता हूँ,
देखता हूँ सूरज को रोज ढलते हुए,
ये तारे रोज ही तो चमकते हैं ।
पर नही देख पाता रोज जिसे वो हो तुम।
तुम्हें न देख पाना कोई गम सा तो नही है,
पर तुम्हें देखना किसी जन्नत से कम भी नही ।
तुम्हें देखना ऐसा है जैसे  तपती गर्मी में पहली बारिश का होना या फिर किसी परिंदे का पहली दफा उड़ पाना या किसी बच्चे का घुटनों के बल चलने की पहली कोशिश जैसा या किसी कवि की पहली कविता जैसा ।
सब परफेक्ट न होने के बाद भी खूबसूरत ।

पर बारिश का रोज होना भी खलने लगता है , परिंदे के लिए उड़ना एक आम बात हो जाती है ,  बच्चा दौड़ना शुरू कर देता है , कवि दोहे लिखने लगता है , जब सब परफेक्ट हो जाता है तो कुछ खास नही रहता । 

मैं नही चाहता कि तुम आम हो जाओ ।
इसलिए मैं रोज चाँद को देखता हूँ , 
देखता हूँ सूरज को ढलते हुए ,
तारों को चमकते हुए ,
पर तुम्हें रोज नही देखना चाहता । कितनी अजीब बात है ?
मैं चाँद को रोज देखता हूँ,
देखता हूँ सूरज को रोज ढलते हुए,
ये तारे रोज ही तो चमकते हैं ।
पर नही देख पाता रोज जिसे वो हो तुम।
तुम्हें न देख पाना कोई गम सा तो नही है,
पर तुम्हें देखना किसी जन्नत से कम भी नही ।
तुम्हें देखना ऐसा है जैसे  तपती गर्मी में पहली बारिश का होना या फिर किसी परिंदे का पहली दफा उड़ पाना या किसी बच्चे का घुटनों के बल चलने की पहली कोशिश जैसा या किसी कवि की पहली कविता जैसा ।
ashujaiswal5744

Ashu Jaiswal

Growing Creator