निज विकास हेतु आवश्यक हैं, संरक्षण एवम् वर्धन : अपने सद्गुणों का परित्याग एवम् सुधार : अपने विकारों का स्वीकार एवम् अर्जन : औरों की अच्छाईयों का निराई एवम् विसर्जन : अर्जित नकारत्मकता का और यह संभव है, जब हम सजगता से करते हैं नित्य अवलोकन अपने मन में चलते विचारों का । मन का सजग अवलोकन