मैंने एकबारगी तुम्हारे बगैर भी चाय पिया था उस रेस्तरां में । तुम्हारे लिए ही , ये जानने कि, जब तुम्हें लाऊँगा तो इसकी चाय तुम्हें पसंद आएगी न !! किसी ने कहा था, कि तुम चाय सबसे लज़ीज़ बनाती हो । तुम्हें बड़ा शौक है चाय पीने का । और ये भी कि तुम अपनी बनाई चाय सिर्फ उन्हें पिलाती हो जिनसे मोहब्बत होती है तुम्हें । इसी फेहरिस्त में शामिल होने के लिए मैं सोचता था कि मैं तुम्हें चाय पे इनवाइट करूँ और जब तुम रेस्तरां की चाय पियो तो कह दो, कि मैं चाय पिलाऊँगी तुम्हें अपने हांथों से बना कर तब कहना चाय कैसी होती है ? और इस तरह शायद मैं उस फेहरिस्त में शामिल हो जाऊँ जिनसे तुम्हें प्यार है । फिर मैंने कॉफी भी पी लिया था इस अंदेशा से कि कहीं तुम चाय के एवज में कॉफी पीना चाहो तो !! मैंने कॉफी भी पिया । फिर कॉफी नहीं पसंद आई तो मैं गया इंडियन कॉफी हाउस की शायद , तुम्हारे इच्छित स्वाद के तकरीबन तो रहे इन कॉफियों का स्वाद । फिर मैं हो आया था थिएटर ! और घूम कर सारी सीटें परख ली थी कि कौन सी सीट तुम्हें सबसे ज्यादा आरामदेह लगेगी । लेकिन इत्तेफ़ाक़ तो देखो तुम मिली भी मुझे तो बस में । वो भी ऐसी बस में जो सिर्फ अपने मुक़ाम में पहुँच कर रुकती है । और जब उतरा तो कोई और ही शहर था वो ! मुझे नहीं पता था चाय यहाँ कहाँ अच्छी मिलती है ? तुम्हें चाय न पिला पाने के अफ़सोस में मैं तुमसे पूँछ भी नहीं पाया कि ये तुम्हारा शहर तो नहीं ? फिर जब मैंने कहा, कि आओ चाय पीते हैं तो तुमने ही तो कहा था न ! कि यहाँ नहीं चलो घर चलते हैं, मैं अच्छी चाय बनाती हूँ , शायद तुम्हें मेरी चाय पसंद आए !! और मैं ईश्वर द्वारा अपनी इस तरह की पूर्वनियोजित मिलन देख कर हतप्रभ रह गया । मुझे यकीन हो गया था कि वाकई ईश्वर हमारे लिए हमसे बेहतरीन तलाश करता है फिर चाहे वो रास्ते हों या मंज़िल । एक बारगी तुम्हारे बगैर भी चाय पिया था उस रेस्तरां में ।