।।भावर।। मैं ठहरा भावर का वादी , गम में भी मुस्काता हूॅं, नही सुनहरे पल तो क्या ,काव्य गीत को गाता हूॅं। घाव बने है गहरे मन में, कालिख छाप मिटाता हूॅं , कोई समझे या ना समझे,खुद को मै समझाता हूॅं। भंवर जाल से बंध जाऊ तो,इच्छा शक्ति जगाता हूॅं, बुझते दिपक की लौ को,खुद साहस से जलाता हूॅं । बारीश के बूंदों में भीगा तो ,तन से उसे सुखाता हूॅं, भरी दोपहरी में जलकर भी लाल पुष्प खिलाता हूॅं। रात बड़ी घनघोर हुई है, सुधाकर तुम्हें बुलाता हूॅं , थम-थम करती आ बैठी, मुश्किल में पड़ जाता हूॅं। शाम सवेरे बस तुम हो,धड़कन में तुम्हें बसाता हूॅं , नही सुनहरे पल तो क्या, काव्य गीत को गाता हूॅं । ----------- नूतन एवं मौलिक रचना संतोष शर्मा कुशीनगर (उ०प्र) तिथि -25/02/2023 ©santosh sharma #भावर