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कोई दिल में रहा कोई घर में रहा मैं मुसाफ़िर ठहरा उ

कोई दिल में रहा कोई घर में रहा
मैं मुसाफ़िर ठहरा उम्र भर सफर में रहा

कोई किनारा तो कोई कश्ती में खोया 
मैं बंजारन के शहर में अपना पहचान खोया।

तमाम उम्र लगा दी इक मीर के लिए 
जो त्यागा ना जाये वो मसलन खोया।

 मंज़िल बदली रास्ता बदले लोग बदले
मुसाफिर के पहिये में कितने दौड़ बदले।

थका नहीं, हारा नहीं, एक मैं था जो चला नहीं
तमाम उम्र रे गुजर गई इक घर हमसे बदला नहीं।

©Deepak Kumar
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