पाले थे कुछ शौक जो गुनाहों में बदल गए, जिनके भरोसे चले थे वो राहों में बदल गए। पत्तों जैसे हम, समझते थे तुफान जिन्हें, थोड़ी तपन क्या पड़ी वो हवाओं में बदल गए। कहते थे अपने आप को,अथाह समंदर जो, दो भरी बाल्टी हमने, वो दरियाओं में बदल गए। वो खुश मिजाज, जो हरपल हंसते रहते थे, हमारे हमदर्द बनते ही,ठहाके आहों में बदल गए। हम लाख पढ़े लिखे,मगर सोच से गंवार रहे, शहर में क्या रहने लगे, वो गांवों में बदल गए। पैसे के दम पे बिकते देखे,इंसाफ के पुजारी हमने, जो मुजरिम बनकर आए थे, गवाहों में बदल गए। हुनर बहुत से सीखे हमने, चालाकियों से जुदा रहे, कभी होते थे फूल गुलाब के,खिजाओं में बदल गए। ✍️ Ombir Kajal ©Ombir Kajal Badal gaye