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अच्छी अब लगती नहीं , स्थिति गाँव की आज । घर-घर की

अच्छी अब लगती नहीं , स्थिति गाँव की आज ।
घर-घर की  यह  बात  है , यहाँ  नहीं  है  काज ।। १

लोग  पलायन  कर  रहे , गाँव  छोड़कर  आज ।
जैसे   दाने   के   लिए ,  उड़े  नील   तक बाज ।। २

मातृ-भूमि   जननी  कहे , सुनों  कष्ट  के  योग ।
भूल किए  जो  गाँव को , छोड़  गये  तुम लोग ।। ३

खुश्बू जितनी  हींग  की , भोजन  को  महकाय ।
व्यथा  तुम्हारी  भी   सुनो , संग-संग  ही  जाय ।। ४

सुनो  सामर्थ्य  भर करो , जीवन  में  हर  काज ।
वर्ना   इच्छाए   सखे ,   करती   रहती   खाज ।। ५

                   महेन्द्र सिंह प्रखर

©MAHENDRA SINGH PRAKHAR अच्छी अब लगती नहीं , स्थिति गाँव की आज ।
घर-घर की  यह  बात  है , यहाँ  नहीं  है  काज ।। १

लोग  पलायन  कर  रहे , गाँव  छोड़कर  आज ।
जैसे   दाने   के   लिए ,  उड़े  नील   तक बाज ।। २

मातृ-भूमि   जननी  कहे , सुनों  कष्ट  के  योग ।
भूल किए  जो  गाँव को , छोड़  गये  तुम लोग ।। ३
अच्छी अब लगती नहीं , स्थिति गाँव की आज ।
घर-घर की  यह  बात  है , यहाँ  नहीं  है  काज ।। १

लोग  पलायन  कर  रहे , गाँव  छोड़कर  आज ।
जैसे   दाने   के   लिए ,  उड़े  नील   तक बाज ।। २

मातृ-भूमि   जननी  कहे , सुनों  कष्ट  के  योग ।
भूल किए  जो  गाँव को , छोड़  गये  तुम लोग ।। ३

खुश्बू जितनी  हींग  की , भोजन  को  महकाय ।
व्यथा  तुम्हारी  भी   सुनो , संग-संग  ही  जाय ।। ४

सुनो  सामर्थ्य  भर करो , जीवन  में  हर  काज ।
वर्ना   इच्छाए   सखे ,   करती   रहती   खाज ।। ५

                   महेन्द्र सिंह प्रखर

©MAHENDRA SINGH PRAKHAR अच्छी अब लगती नहीं , स्थिति गाँव की आज ।
घर-घर की  यह  बात  है , यहाँ  नहीं  है  काज ।। १

लोग  पलायन  कर  रहे , गाँव  छोड़कर  आज ।
जैसे   दाने   के   लिए ,  उड़े  नील   तक बाज ।। २

मातृ-भूमि   जननी  कहे , सुनों  कष्ट  के  योग ।
भूल किए  जो  गाँव को , छोड़  गये  तुम लोग ।। ३