एक कली नन्ही सीi. इतराई थी अपनी गंध भरी देह देख कर आज वह विवशता के झांसे मे हा जा फंसी आया था भ्र्मर रसविहीन कर गया था उसे औऱ रवि किरणों ने शुष्कतकीओर ढकेल दिया उसे.... सुबह ही तो जन्मी थी कितनी प्रसन्न थी वो हाय जीवन उसका नष्ट हुआ ऐसी ये क्या शाम हुईं यहां हरचीज बनती औऱ बिगड़ती हैँ सत्तत प्रवाह हैँ कुछभी यहां स्थिर नहीं....... मरण धर्मा.....