अभी तो फ़ैसला बाक़ी है शाम होने दे सहर की ओट में महताब-ए-जाँ को रोने दे बहुत हुआ तो हवाओं के साथ रो लूँगा अभी तो ज़िद है मुझे कश्तियाँ डुबोने दे ये ग़म मिरा है तो फिर ग़ैर से इलाक़ा क्या मुझे ही अपनी तमन्ना का बार ढोने दे ©words_of_heart_pa अभी तो फ़ैसला बाक़ी है शाम होने दे सहर की ओट में महताब-ए-जाँ को रोने दे बहुत हुआ तो हवाओं के साथ रो लूँगा अभी तो ज़िद है मुझे कश्तियाँ डुबोने दे ये ग़म मिरा है तो फिर ग़ैर से इलाक़ा क्या मुझे ही अपनी तमन्ना का बार ढोने दे