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रचना दिनांक २५,,१२,,,२०११ वार रविवार समय्् ््दोप १

रचना दिनांक २५,,१२,,,२०११
वार रविवार
समय्् ््दोप १बजकर तीस मिनट
्््रचनास्त्रोत ््
जिस प्रकार सपने की आंखें नहीं होती,,
ठीक वैसे ही शौहरत और दौरान के पैर नहीं होते।।
लेकिन उसकी चाल वकत के साथ चलती है,,
उसका पीछा करते करते जिन्दगी छोटी पड जाती है।।
यही रचना की शाश्वतता है
्््
आंख लगी सपना देखा,,
तुझमें ऐसा क्या देखा।।
मन को भाया देख अ
तुझमें अपना सब कुछ खोया।।
रात अंधेरी जी भर रोया,,
रोज सबेरे तुझमें फिर खोया।।
बात बता तू है ऐसी क्या,,
जी भर कर देखु मैं क्या।।।
राह अकेले चलते फिरते,,
रोज नजारे देखता फिरता।।
जहां कहीं भी मिलें बसेरा,,
शाम सबैरा सब कुछ तेरा
जिधर चले तूं तन मन डोले।।
नगर तेरा रुपया आना पैसा
काम चले तो बाप न बेटा,,
तेरे रंग में वो संजती महफ़िल,,

तेरे बिना वो डुबकी महफ़िल।।
्््कवि शैलेंद्र आनंद ््
5 जुलाई 2023



जहां कहीं भी मिले बसेरा,,
शाम सबेरे

©Shailendra Anand
  #WinterLove