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सुन कर चीखें अबलाओं की, मैं व्याकुल होकर सिहर गया

सुन कर चीखें अबलाओं की, 
मैं व्याकुल होकर सिहर गया।
फिर हृदय कंपनों की गति का, 
आवेग तीव्र हो बिखर गया।
यह राज भोग का महा ज्वार।
कंचन महलों का विष अपार।
सत्ता की गलियों का सियार।
बस नोच रहा तन का शृँगार।
क्या मानवता का यही सार।
जो  हुई  आबरू  तार  तार।
नारी जो जीवन का अधार,
कर रही धरा पर चीत्कार,
लेकिन गूँगे, अंधे शासक ,
झूठे  उद्गार  सुनाते   हैं।
कुर्सी की लालच में बँधकर,
हो मौन पलक झपकाते हैं।
शकुनी के फेंके पासों से, 
मानवता में विष उतर गया।
फिर द्वापर का दृश्य भयावह, 
मेरी  आँखों  में   पसर  गया।

©Karan
  #मणिपुर