वो भी क्या सुखद से दिन थे ज़ब "मासूमियत ".फूलों पर बैठी तितलियों को चूमा करती थी घुम्मुकड़ बादलो को देख नित नए स्वप्न बुनती और उन्हे संजोति थी पांवो को रेत में धंसा कर रेत के घर बनाकर महलो के मज़े लिया करती थी लेकिन आज वो तथाकथित "मासूमियत " उम्र की समय सीमा लाँघ चुकी थी और शहर के कोलाल में मधुर वाणी की मिठास भी खो चुकी थी अब नही होती चर्चा उससे दूरियों और फासलों की अपनों से केवल अस्तित्व में घुल जाने की एक मात्र अभीप्सा शेष रह गई थी ©Parasram Arora मासूमियत