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एक खिड़की एक महोल्ले की बंध खिड़की हमे, खूब पहेचा

एक खिड़की

एक महोल्ले की बंध खिड़की हमे, खूब पहेचान ती थी,
हम जब भी गुजरते वंहा से, वो अक्सर खुल जाया करती थी.

थोड़ी थी मासूमियत सी झलक चुपके से छलकाती रहती
हां वो एक खिड़की, बेनूर सी घड़ीओ में, नूर लाया करती थी

कभी रहती पूरे दिन जो बंध, तो अजीब सी बेचैनी छा जाती
इस तरह कभी कभी वो, हमारे सब्र को आजमाया करती थी.

बारिश के मौसमों में छुप जाती और कभी खेलती बूंदों से
वो भी बारिश को अपने होने का, अहसास दिलाया करती थी.

©Vijay Gohel Saahil
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