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गर्मी का मौसम है। लू चल रही है। सर्दी की तरह मन की

गर्मी का मौसम है। लू चल रही है। सर्दी की तरह मन की रुमानियत तलाशता हूँ, मगर लाख आवाज देने पर उसका कोई पता नही चलता है। गर्मी के ये चार महीने अपनी उपेक्षा से इतने आहत होंगे की तपाते हुए मुझे भस्म करना चाहेंगे। तापमान के लिहाज से मन के ग्लेशियर को पिघलना चाहिए। मगर मेरे केवल देह पर पसीना आता है। मन का तापमान वही जनवरी में अटका हुआ है। नही जानता कैसे दिल की कन्दराओं में जमीं आसुओं की बर्फ सुरक्षित है?

कभी-कभी जी अतिवादी हो जाता है अकेलेपन की इस भीड़ में। तो ऐसी स्थिति में मैं कमरा, खिड़की सब बंद करके समाधिस्थ हो बैठ जाता हूँ। पसीना ललाट से चलकर एड़ी तक पहुँच जाता है, मगर मन की स्याह ठंडी बर्फीली दुनिया पर लेशमात्र भी प्रभाव नही पड़ता है। देह भीगकर ठंडी हो जाती है। गर्मी का अहसास भी लगभग समाप्त हो जाता है, फिर भी मन किसी सवाल का जवाब नही देना चाहता है। यह स्थिर प्रज्ञ होने जैसा जरूर प्रतीत होता है, मगर वास्तव में यह ऐसा नही है। खुद की तलाशी लेने पर मैं इसे कुछ-कुछ द्वंदात्मक भौतकिवाद के नजदीक पाता हूँ। पता नही यह बाहर की गर्मी का असर है या अंदर की यादों की ठंडक का? मगर मैं खुद से बहुत दूर निकल आया हूँ अब।

गर्मी के इन चार महीनों के परिवेशीय प्रतिकूलता मुझे विवेक का दास बनाना चाहती है, जबकि मैं सदियों से दिल के सहारे जी रहा हूँ। और इस तरह जीना मेरे लिए सुखद भले ही न रहा हो, मगर मैं उस मनस्थिति को ठीक-ठीक समझ पाता हूँ।
फिलहाल! मैं यह तय नही कर पा रहा हूँ कि मैं गर्मी के ताप से खुद का चेहरा कैसे साफ करूँ? 
गर्मी का आना महज ताप का आना नही है। गर्मी का आना मेरे लिए सर्दी का जाना और चाँद का कमजोर पड़ जाना है।

ऐसे में मैं चले जाना चाहता हूँ अपने हमदम के साथ वहाँ, जहाँ प्रकृति ही चराचर है। ताकि! जी सके हम अपने बेतरतीब रूमानी ख्यालों को..
एक-दूसरे के संग प्रकृति के गोद में। और मुझे पता है कि प्रकृति कहीं का भी हो वह मुझे और मेरे निर्वासन की युक्ति को भली-भाँति समझकर वो मुझे भौतिक/अभौतिक शरण देना सहर्ष स्वीकार कर लेगा।

खैर! आप सब वातानुकूलित कक्षों में बैठ लिक्विड डाईट और लेमोनाईड का प्रयोग करते रहना। और हम तो चलने वाले हैं इस गर्मी को जीने के लिए पहाड़, नदियाँ, समुन्द्र आदि जैसे जगहों पर जीने के लिए। अब मुझ तक तुम्हे अपनी बात पहुंचाने के लिए दुगुनी गति से चिल्लाना पड़ेगा। खैर! इसमें तुम तो माहिर हो। 
मैं ऊपर से तुम्हारे माथे का पसीना देख केवल मुस्कुरा दिया करूँगा, और मेरी हँसी तुम बादलों की गड़गड़ाहट और समुन्द्रों की उफान में सुन सकोगी। और हाँ कभी बेमौसमी बारिश हो जाए तो समझ लेना यहाँ मैंने तुम्हें याद किया है, याद करके रोया हूँ।। 😊👍
      -✍️अभिषेक यादव

©Abhishek Yadav #tumaurmain
गर्मी का मौसम है। लू चल रही है। सर्दी की तरह मन की रुमानियत तलाशता हूँ, मगर लाख आवाज देने पर उसका कोई पता नही चलता है। गर्मी के ये चार महीने अपनी उपेक्षा से इतने आहत होंगे की तपाते हुए मुझे भस्म करना चाहेंगे। तापमान के लिहाज से मन के ग्लेशियर को पिघलना चाहिए। मगर मेरे केवल देह पर पसीना आता है। मन का तापमान वही जनवरी में अटका हुआ है। नही जानता कैसे दिल की कन्दराओं में जमीं आसुओं की बर्फ सुरक्षित है?

कभी-कभी जी अतिवादी हो जाता है अकेलेपन की इस भीड़ में। तो ऐसी स्थिति में मैं कमरा, खिड़की सब बंद करके समाधिस्थ हो बैठ जाता हूँ। पसीना ललाट से चलकर एड़ी तक पहुँच जाता है, मगर मन की स्याह ठंडी बर्फीली दुनिया पर लेशमात्र भी प्रभाव नही पड़ता है। देह भीगकर ठंडी हो जाती है। गर्मी का अहसास भी लगभग समाप्त हो जाता है, फिर भी मन किसी सवाल का जवाब नही देना चाहता है। यह स्थिर प्रज्ञ होने जैसा जरूर प्रतीत होता है, मगर वास्तव में यह ऐसा नही है। खुद की तलाशी लेने पर मैं इसे कुछ-कुछ द्वंदात्मक भौतकिवाद के नजदीक पाता हूँ। पता नही यह बाहर की गर्मी का असर है या अंदर की यादों की ठंडक का? मगर मैं खुद से बहुत दूर निकल आया हूँ अब।

गर्मी के इन चार महीनों के परिवेशीय प्रतिकूलता मुझे विवेक का दास बनाना चाहती है, जबकि मैं सदियों से दिल के सहारे जी रहा हूँ। और इस तरह जीना मेरे लिए सुखद भले ही न रहा हो, मगर मैं उस मनस्थिति को ठीक-ठीक समझ पाता हूँ।
फिलहाल! मैं यह तय नही कर पा रहा हूँ कि मैं गर्मी के ताप से खुद का चेहरा कैसे साफ करूँ? 
गर्मी का आना महज ताप का आना नही है। गर्मी का आना मेरे लिए सर्दी का जाना और चाँद का कमजोर पड़ जाना है।

ऐसे में मैं चले जाना चाहता हूँ अपने हमदम के साथ वहाँ, जहाँ प्रकृति ही चराचर है। ताकि! जी सके हम अपने बेतरतीब रूमानी ख्यालों को..
एक-दूसरे के संग प्रकृति के गोद में। और मुझे पता है कि प्रकृति कहीं का भी हो वह मुझे और मेरे निर्वासन की युक्ति को भली-भाँति समझकर वो मुझे भौतिक/अभौतिक शरण देना सहर्ष स्वीकार कर लेगा।

खैर! आप सब वातानुकूलित कक्षों में बैठ लिक्विड डाईट और लेमोनाईड का प्रयोग करते रहना। और हम तो चलने वाले हैं इस गर्मी को जीने के लिए पहाड़, नदियाँ, समुन्द्र आदि जैसे जगहों पर जीने के लिए। अब मुझ तक तुम्हे अपनी बात पहुंचाने के लिए दुगुनी गति से चिल्लाना पड़ेगा। खैर! इसमें तुम तो माहिर हो। 
मैं ऊपर से तुम्हारे माथे का पसीना देख केवल मुस्कुरा दिया करूँगा, और मेरी हँसी तुम बादलों की गड़गड़ाहट और समुन्द्रों की उफान में सुन सकोगी। और हाँ कभी बेमौसमी बारिश हो जाए तो समझ लेना यहाँ मैंने तुम्हें याद किया है, याद करके रोया हूँ।। 😊👍
      -✍️अभिषेक यादव

©Abhishek Yadav #tumaurmain