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मैं उसको इस कदर आंख भर के देखूं वो जाए दूर फिर भी

मैं उसको इस कदर आंख भर के देखूं 
वो जाए दूर फिर भी आह भर के देखूं 
एक इंसान ने यूं ही इस कदर पा लिया उसे 
मैं उसे खुद के किस ख्वाब मैं देखूं

चंद लम्हे बिताए उसके साथ में 
पर सपने हजार में देखूं 
साथ में होकर भी रास्ते अलग से हैं हमारे 
खुद अकेले चलकर उसे किसी और के साथ मैं देखूं

कुछ कह कर भी किसी के एहसास-ए-मोहब्बत से 
वाकिफ होने से महरूम है ये दुनिया 
यूं तो बिन कहे, बिन सुने समझ लेते हैं एक दूजे को 
उसकी आंखों में खुद के लिए प्यार बेशुमार मैं देखूं

यूं बिखरी जुल्फें, यूं बदहवास सी हालत, यूं आंखों के दरमियां घेरे काले काले 
उसे पसंद हूं मैं इन खामियों के साथ 
वो कहे मेहताब का नूर मुझे 
उसकी नजरों से आईने में खुद का दीदार हजार बार मैं देखूं

वो मेला, वो झूले, वो रास्ता तेरे साथ में 
याद है वो आखरी दिन मेरा हाथ तेरे हाथ में 
वो बिंदी, वो लाली, फिर भी कुछ कमी सी थी श्रृंगार में 
वो तेरी पसंद के झुमके पहन खुद को बार-बार में देखूं

मोहज़्ज़ब(सभ्य) मोहब्बत और ये बेइंतेहा चाहत हमारे दरमियां 
एक पायल उसने अपने हाथों से पहनाई जो मुझे 
कुछ इस तरह छुआ मेरे पैरों से मेरे दिल को 
उस लम्हे को तन्हाई में हजार बार में देखूं


बेबसी का आलम कुछ इस कदर है मेरे आशना 
वो साथ होकर भी साथ नहीं है मेरे 
मेरा होकर भी मेरा ना हो सका वो 
उसे पाया भी नहीं फिर भी खो देने का आज़ार(दर्द) मैं देखूं

-लफ़्ज़-ए-आशना "पहाड़ी"









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©दीक्षा गुणवंत   sad urdu poetry poetry urdu poetry poetry on love poetry in hindi
मैं उसको इस कदर आंख भर के देखूं 
वो जाए दूर फिर भी आह भर के देखूं 
एक इंसान ने यूं ही इस कदर पा लिया उसे 
मैं उसे खुद के किस ख्वाब मैं देखूं

चंद लम्हे बिताए उसके साथ में 
पर सपने हजार में देखूं 
साथ में होकर भी रास्ते अलग से हैं हमारे 
खुद अकेले चलकर उसे किसी और के साथ मैं देखूं

कुछ कह कर भी किसी के एहसास-ए-मोहब्बत से 
वाकिफ होने से महरूम है ये दुनिया 
यूं तो बिन कहे, बिन सुने समझ लेते हैं एक दूजे को 
उसकी आंखों में खुद के लिए प्यार बेशुमार मैं देखूं

यूं बिखरी जुल्फें, यूं बदहवास सी हालत, यूं आंखों के दरमियां घेरे काले काले 
उसे पसंद हूं मैं इन खामियों के साथ 
वो कहे मेहताब का नूर मुझे 
उसकी नजरों से आईने में खुद का दीदार हजार बार मैं देखूं

वो मेला, वो झूले, वो रास्ता तेरे साथ में 
याद है वो आखरी दिन मेरा हाथ तेरे हाथ में 
वो बिंदी, वो लाली, फिर भी कुछ कमी सी थी श्रृंगार में 
वो तेरी पसंद के झुमके पहन खुद को बार-बार में देखूं

मोहज़्ज़ब(सभ्य) मोहब्बत और ये बेइंतेहा चाहत हमारे दरमियां 
एक पायल उसने अपने हाथों से पहनाई जो मुझे 
कुछ इस तरह छुआ मेरे पैरों से मेरे दिल को 
उस लम्हे को तन्हाई में हजार बार में देखूं


बेबसी का आलम कुछ इस कदर है मेरे आशना 
वो साथ होकर भी साथ नहीं है मेरे 
मेरा होकर भी मेरा ना हो सका वो 
उसे पाया भी नहीं फिर भी खो देने का आज़ार(दर्द) मैं देखूं

-लफ़्ज़-ए-आशना "पहाड़ी"









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