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अधरो पर रहती है उसके, चुप की एक लकीर । बोल नही सकत

अधरो पर रहती है उसके, चुप की एक लकीर ।
बोल नही सकता मैं कुछ भी , ऐसी है जंजीर ।।

रातें अब लगती है ऐसे , बिन मोती के सीप ।
चुप वो रहती चुप मैं रहता , रहते मगर समीप ।।
गिरकर उठता उठकर गिरता , प्यासा यहाँ फ़कीर ।
अधरो पर रहती है उसके , चुप की एक लकीर ।।

अंग-अंग को देखा उसके , रति की है पहचान ।
डोल रहा हृदय में सभी के , मानुज का ईमान ।।
देख-देख कर नज़र मिलाता ,पाकर मीठी पीर ।
अधरो पे रहती है उसके , चुप की एक लकीर ।।

जो भी पाये हर्ष करेगा , सुंदर ऐसा मीत ।
उसके खातिर हम भी तोड़े ,ऊँची-ऊँची भीत ।
आज हार कर हम भी कहते , कच्चे है अंजीर 
अधरो पर रहती है उसके , चुप की एक लकीर ।।

आज हृदय पे घात हुआ तो , झर-झर गिरते नीर
रखना न अब चीर के सीना , नही किसी को पीर ।
सुनकर सबके दर्द प्रखर तो , गाता रहा कबीर
अधरो पे रहती है उसके , चुप की एक लकीर ।।

२७/१०/२०२२    -       महेन्द्र सिंह प्रखर

©MAHENDRA SINGH PRAKHAR अधरो पर रहती है उसके, चुप की एक लकीर ।
बोल नही सकता मैं कुछ भी , ऐसी है जंजीर ।।

रातें अब लगती है ऐसे , बिन मोती के सीप ।
चुप वो रहती चुप मैं रहता , रहते मगर समीप ।।
गिरकर उठता उठकर गिरता , प्यासा यहाँ फ़कीर ।
अधरो पर रहती है उसके , चुप की एक लकीर ।।
अधरो पर रहती है उसके, चुप की एक लकीर ।
बोल नही सकता मैं कुछ भी , ऐसी है जंजीर ।।

रातें अब लगती है ऐसे , बिन मोती के सीप ।
चुप वो रहती चुप मैं रहता , रहते मगर समीप ।।
गिरकर उठता उठकर गिरता , प्यासा यहाँ फ़कीर ।
अधरो पर रहती है उसके , चुप की एक लकीर ।।

अंग-अंग को देखा उसके , रति की है पहचान ।
डोल रहा हृदय में सभी के , मानुज का ईमान ।।
देख-देख कर नज़र मिलाता ,पाकर मीठी पीर ।
अधरो पे रहती है उसके , चुप की एक लकीर ।।

जो भी पाये हर्ष करेगा , सुंदर ऐसा मीत ।
उसके खातिर हम भी तोड़े ,ऊँची-ऊँची भीत ।
आज हार कर हम भी कहते , कच्चे है अंजीर 
अधरो पर रहती है उसके , चुप की एक लकीर ।।

आज हृदय पे घात हुआ तो , झर-झर गिरते नीर
रखना न अब चीर के सीना , नही किसी को पीर ।
सुनकर सबके दर्द प्रखर तो , गाता रहा कबीर
अधरो पे रहती है उसके , चुप की एक लकीर ।।

२७/१०/२०२२    -       महेन्द्र सिंह प्रखर

©MAHENDRA SINGH PRAKHAR अधरो पर रहती है उसके, चुप की एक लकीर ।
बोल नही सकता मैं कुछ भी , ऐसी है जंजीर ।।

रातें अब लगती है ऐसे , बिन मोती के सीप ।
चुप वो रहती चुप मैं रहता , रहते मगर समीप ।।
गिरकर उठता उठकर गिरता , प्यासा यहाँ फ़कीर ।
अधरो पर रहती है उसके , चुप की एक लकीर ।।