Nojoto: Largest Storytelling Platform

कभी कभी तन्हाइयो को दूर करने के लिए, भीड़ का सहारा

कभी कभी तन्हाइयो को दूर करने के लिए,
भीड़ का सहारा लेती हूं मैं।
लोगो के बीच भी कभी कभी ,
बहुत अकेली रहती हूं मैं।
मुझे जो अच्छा लगता है वो नही,
जो लोगो को अच्छा लगे ,
बस वही तो कहती हूं मैं।
जैसे जीवन की कल्पना थी ,
वो कल्पना ही रह गई।
लोग मुझे जैसे जीते देखना चाहते है,
उसी तरह तो बस जीती हूं मैं।
मुझे पता है सही हूँ मैं,
लेकिन अपनी मर्जी की ,
कहाँ कर सकती हूं मैं।
जब तक पीछे खड़ी हूँ तब तक सही
गलत समझते है वही लोग,
जब आगे बढ़ती हूँ मैं।
न उठे कोई ऊँगली,
समाज के मुताबिक जीती हूँ मैं।
कैसी बेबसी है मेरी,
 मन की कुछ बोल नही सकती।
बड़ी ही घुट घुट कर जीती हूँ मैं।
जहाँ मैं , मैं नही ,
समाज के हाथों की कठपुतली हूँ मैं।
जाने क्यों समाज,
झूठी परम्पराओ से बांधती है मुझे।
और न जाने क्यों इनसे डरती हूँ मैं। समाज की कठपुतली क्यो है हम?

कभी कभी तन्हाइयो को दूर करने के लिए,
भीड़ का सहारा लेती हूं मैं।
लोगो के बीच भी कभी कभी ,
बहुत अकेली रहती हूं मैं।
मुझे जो अच्छा लगता है वो नही,
जो लोगो को अच्छा लगे ,
कभी कभी तन्हाइयो को दूर करने के लिए,
भीड़ का सहारा लेती हूं मैं।
लोगो के बीच भी कभी कभी ,
बहुत अकेली रहती हूं मैं।
मुझे जो अच्छा लगता है वो नही,
जो लोगो को अच्छा लगे ,
बस वही तो कहती हूं मैं।
जैसे जीवन की कल्पना थी ,
वो कल्पना ही रह गई।
लोग मुझे जैसे जीते देखना चाहते है,
उसी तरह तो बस जीती हूं मैं।
मुझे पता है सही हूँ मैं,
लेकिन अपनी मर्जी की ,
कहाँ कर सकती हूं मैं।
जब तक पीछे खड़ी हूँ तब तक सही
गलत समझते है वही लोग,
जब आगे बढ़ती हूँ मैं।
न उठे कोई ऊँगली,
समाज के मुताबिक जीती हूँ मैं।
कैसी बेबसी है मेरी,
 मन की कुछ बोल नही सकती।
बड़ी ही घुट घुट कर जीती हूँ मैं।
जहाँ मैं , मैं नही ,
समाज के हाथों की कठपुतली हूँ मैं।
जाने क्यों समाज,
झूठी परम्पराओ से बांधती है मुझे।
और न जाने क्यों इनसे डरती हूँ मैं। समाज की कठपुतली क्यो है हम?

कभी कभी तन्हाइयो को दूर करने के लिए,
भीड़ का सहारा लेती हूं मैं।
लोगो के बीच भी कभी कभी ,
बहुत अकेली रहती हूं मैं।
मुझे जो अच्छा लगता है वो नही,
जो लोगो को अच्छा लगे ,