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दिन थे जब ख्वाबों को सिर्फ आँखों में पलते थे, अब ह

दिन थे जब ख्वाबों को सिर्फ आँखों में पलते थे,
अब हकीकत में मिले तो कुछ अधूरी सी लगती है।

मुफलिसी की रातें थीं जैसे स्याह अंधेरे,
अब ये रौशनी भी कुछ धुंधली सी लगती है।

कभी जो हमसे जुदा हो गईं थीं तमन्नाएँ,
अब वो पूरी हुईं तो कुछ अधुरी सी लगती है।

मंज़िल तक पहुँचने की ख़ुशी भी अब ग़म के साए में,
अब ये बहार भी कुछ कटीली सी लगती है।

©नवनीत ठाकुर #नवनीतठाकुर 
 दिन थे जब ख्वाबों को सिर्फ आँखों में पलते थे,
अब हकीकत में मिले तो कुछ अधूरी सी लगती है।

मुफलिसी की रातें थीं जैसे स्याह अंधेरे,
अब ये रौशनी भी कुछ धुंधली सी लगती है।

कभी जो हमसे जुदा हो गईं थीं तमन्नाएँ,
दिन थे जब ख्वाबों को सिर्फ आँखों में पलते थे,
अब हकीकत में मिले तो कुछ अधूरी सी लगती है।

मुफलिसी की रातें थीं जैसे स्याह अंधेरे,
अब ये रौशनी भी कुछ धुंधली सी लगती है।

कभी जो हमसे जुदा हो गईं थीं तमन्नाएँ,
अब वो पूरी हुईं तो कुछ अधुरी सी लगती है।

मंज़िल तक पहुँचने की ख़ुशी भी अब ग़म के साए में,
अब ये बहार भी कुछ कटीली सी लगती है।

©नवनीत ठाकुर #नवनीतठाकुर 
 दिन थे जब ख्वाबों को सिर्फ आँखों में पलते थे,
अब हकीकत में मिले तो कुछ अधूरी सी लगती है।

मुफलिसी की रातें थीं जैसे स्याह अंधेरे,
अब ये रौशनी भी कुछ धुंधली सी लगती है।

कभी जो हमसे जुदा हो गईं थीं तमन्नाएँ,