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saurabhbaurai2695
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Saurabh Baurai

Thanks for visiting apni pehchaan apne main hoti hai to bas khud hee tey kare ki aap hain kon? lots of love to you guys insta - Saur_shivaay blog - www.satyasarthak.blogspot.com

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Saurabh Baurai

कहता संघर्ष ये !

इक संघर्ष कि एक दस्ता,
संघर्ष ही आज सुनाएगा।
हर चंचल चित्त की उत्सुकता को,
छन्दों से आज मिटाएगा।।

कहता संघर्ष ये (2) -

सुन तानो का शोर यु बहुधा,
मैदान भी मैंने त्यागा था।
उग्र उपहास कि अनल में तपकर,
शीतल रैन में जागा था।।
कलित मुखड़ों की आड़ में मैंने,
विष प्याले पलते देखे है।
तनिक प्रकाश कि चाह में अक्सर,
दिये दुर्बल जलते देखे है।।
हर जीवन के कालचक्र पर,
मिथ्य यथार्थ को पाया है।
इन दोनों से परेय निकलकर,
शोभन का साथ निभाया है।।
जहाँ भी जाओ इस धरणी पर,
हर देह में मुझको पाओगे ।
किसी मे सोया किसी मे जागा,
पर मुझ बिन ना रह पाओगे।।
सिद्धि भी मेरी राह से होकर,
गुण मेरे सब गाती है।
विधि,भाग्य है झूठी बाते,
सिर्फ कर्म ही मेरा साथी है।।
विचलित चित्त के हर कोने को,
छन्द से मेरे मिलवा दो।
हर चंचल मन की उत्सुकता को,
इन छन्दों से बिलवा दो।।

इक संघर्ष कि एक दस्ता,
संघर्ष ही आज है सुना रहा।
हर चंचल चित्त की उत्सुकता को,
छन्दों से आज है मिटा रहा #motivation #संघर्ष #hindipoems #कविता #hindi

motivation संघर्ष hindipoems कविता hindi

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Saurabh Baurai

मेरी न हो सकी तो कुछ ऐसा करदो,
मैं जैसा था फिर वैसा करदो।

Gulzar #Gulzarsaab
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Saurabh Baurai

मेरी न हो सकी तो कुछ ऐसा करदो,
मैं जैसा था फिर वैसा करदो।

Gulzar #Gulzarsaab
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Saurabh Baurai

घनघोर तिमिर फैल चुका है चारो ओर
हर आंख रोशनी की तलाश में भटकती नजर आ रही है । 
जो कल तक रखते थे जज्बा इस शहर को खरीदने का ,
वो सांसे आज कैद हवाओ कि तलाश में भटकती नजर आ रही है ।।


 Full Poem COMING SOON......


Thanks 

yours
saur_shivaay

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Saurabh Baurai

ढल रही है यह धरा
घनघोर तम की छाव से।
ओझल सि लिपटी कोई बेड़ी
जकड़े मनुज को पाव से।।

सत्य अब जख्मी सा होकर
कैद होने है लगा।
चंद सिक्कों की लालसा में
डकैत अब होने लगा।।

मच रहा है शोर हर क्षण 
झूठ की हर जीत का।
उल्लास में है हर प्राणी
इस अनोखी रीत का।।

गिर रहा है श्वेत पंछी 
धूर्त रण की बाह से।
बह रही है रुधिर तटिनी
असुर युग के प्रभाव से।।

हो रहा नरसंहार हरदिन
मौनता और धीर से ।
अंजान होकर जन है सोया
विवश बंध जंजीर से ।। दुर्दशा इस जग की ।

दुर्दशा इस जग की । #कविता

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Saurabh Baurai

आओ चखे इन बारिशों कि बूंदों को जरा सा
शायद बचपन याद आ जाए।
बनाये आज भी इक और कागज़ कि कश्ती
शायद बचपन याद आ जाए।।

सोये यु मिट्टी की खुशबू लिये बेखबर 
शायद बचपन याद आ जाए।
चले कुछ सिक्कें लिए जेबों में बेधड़क
शायद बचपन याद आ जाए।

भूल जाए यू रोज कि बढ़ती दिलो की उलझन
शायद बचपन याद आ जाए।
लड़े इन सड़को में लिए यारो कि पलटन
शायद बचपन याद आ जाए।

खोजे बीते लम्हो कि खोयी सी परछन
शायद बचपन याद आ जाए।
रोये तकिये में लिए हर यादों के उपवन
शायद बचपन याद आ जाए।।

मांगे यू दुआओं में हर छोटी सी ख्वाइश
शायद बचपन याद आ जाए।
लिपट माँ के गले से करें हर शिफारिश
शायद बचपन याद आ जाए।

चलो अब छोड़ देते है खुद को कहना सिकंदर
शायद बचपन याद आ जाए।
जी लेते इस छोटी ज़िन्दगी को खुशी के दर पर
शायद बचपन याद आ जाए।। बचपन

बचपन #कविता

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Saurabh Baurai

है कफन ये बोलते कुछ
कुछ सुनाना चाहते है।
निश्चल से बैठे जी भी अब
ऊधम मचाना चाहते है।।

भस्म बिखरी राख देखो
फिर से जलने है लगी।
विकलांग थी जो रूहे देखो
फिर से चलने है लगी।।

जल रहा है द्वीप हरदिन
हर गली हर चौक में।
प्रतिशोध में विचलित है ये मन
गलवान के इस शोक में।।

श्वेतरूपी हिन्द देखो
लाल छवि में ढल रहा है।
सुखचैन वाला सूर्य भी अब
पावक सा बनकर जल रहा है।।

बज रहा है शंक जय का
व्योम की हर छोर से।
झुक रहा हर सर अमर को
लोक मे हर ओर से।।

मौन निष्ठुर वीर भी अब
कुछ बताना चाहते है।
युद्ध की ज्वाला से ये अब
रिपु जलाना चाहते है।।

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Saurabh Baurai

किल्लत रोटी की तब जानी
जब रोटी ने नाता तोड़ा।
कीमत खुद की तब पहचानी
जब अपनो ने हाथ ये छोड़ा।।

भटक रहे थे खाली पेट तो
अश्रुनीर से प्यास बुझाई।
थाम रहे थे जब खुद को तो
हर दहलीज़ से ठोकर पाई।।

गगन में उड़ना चाहा जब भी
जंज़ीरों से लिपट गए।
छाव की चाह में जब भी बैठें
वृक्ष भी बहुधा सिमट गए।।

दर्द भी पहले आंशू बनकर
हर क्षण टपका करते थे।
पूरे जग से होकर अक्सर 
मुझपर अटका करते थे।।

विवश का आंगन छोड़ के इक दिन
पृथक सा बनना ठान लिया।
झूठे गणित के विश्व मे मैंने 
खुद को शून्य सा मान लिया।।

ना जाने क्यों अब हर कोई
मेरा साथ यूँ चाहते है।
जग के बड़े अंक भी देखो 
शून्य से जुड़ना चाहते है।।

जान गया हूँ जग से इतना
रक्त तो यहां बहाना है।
यहाँ से पाई हर रोटी का
मोल ये सबको चुकाना हैं।। रोटी की कीमत

रोटी की कीमत #कविता

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Saurabh Baurai

#WorldEnvironmentDay संकट की इस कठिन घडी में
मानव जीवन विषम हुआ।
काम काज को भूल के अब तो 
घर पर रहना नियम हुआ।।

वसुधा माँ का आँचल फिर से
सदियों बाद ये हरित हुआ।
दूषण रहित ये धरा को पाकर
मानव जीवन तृप्त हुआ।।

प्रकृति की प्रगति से देखो 
चारो ओर ही हरियाली है।
पशु पक्षी की मधु वाणी से 
ताप काल मे खुशयाली है।।

वायु विषैली जो अब तक थी
उसका भी दामन साफ हुआ।
सड़को पर सन्नाटे पाकर 
प्रदूषण भी नापाक हुआ।।

नद का मैला नीर भी अब तो 
जन के पीने योग्य बना।
विश्वबंद के निर्णय से देखो
विश्व ये रहने योग्य बना ।। #environmentday
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Saurabh Baurai

#Nationalgirlchildday अपनी इक छोटी सि परी का
प्यार मैं बनना चाहता हूँ,
उसके नैन के हर लम्हे का 
संसार मैं बनना चाहता हूँ।

राह अगर कभि कटु बने जो
राह मैं चलना चाहता हूँ।
अंधकार की घड़ी जो आये
ज्योत सि जलना चाहता हूँ।।

अगर कभी वह भटक गई तो
पथदर्शक बनना चाहता हूँ।
मुझे गई वह कभी भूल तो 
याद मैं आना चाहता हूँ ।।

कुछ मांगे वह अगर कभी तो 
देव का रूप मैं चाहता हूँ ।
हृदय कि उसकी हर धड़कन में
वास मैं करना चाहता हूँ ।। save girl child #womenempowerment
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