Find the Best मनुज Shayari, Status, Quotes from top creators only on Nojoto App. Also find trending photos & videos about मनुज का विलोम शब्द, मनुज को खोज निकाला, मनुज का अर्थ, मनुज का पर्यायवाची, मनुज meaning in english,
Sunil Kumar Maurya Bekhud
मनुज मनुज बहुत ही स्वार्थी मनुज बहुत उपकारी रक्षक अगर यही तो खंजर भी दोधारी गौ सेवक कहलाता पर सिर्फ दूध से नाता गर दूध नहीं है थन में आवारा उसे बनाता आवारा घूम रहें हैं जाने कितने घोड़े गधेे जब जरूरत उनकी होती रहतें हैं दर पे बँधे जब नहीं जरूरत उनको देता है नहीं वो खाना सर्दी गर्मी बारिश में वो घूम रहे बेगाना बेखुद कलयुग में मानव बन गया आज है दानव खाता है कीड़े मकोड़े करता धरती पर तांडव ©Sunil Kumar Maurya Bekhud #मनुज
कवि मनोज कुमार मंजू
रूप में है शान्तता कभी प्रचण्ड रौद्रता हरो दरिद्रता प्रभु मनुज तुम्हें निहारता ©कवि मनोज कुमार मंजू #रौद्रता #दरिद्रता #प्रभु #मनुज #मनोज_कुमार_मंजू #मँजू #titliyan
poonam atrey
फलदार वृक्ष झुके रहते हैं ,ये विनम्रता का परिचायक है, स्वच्छ वायू और जल देती है ,वो प्रकृति भी तो दायक है, ज़िन्दगी में यदि बाँस से बने रहे, तो उखाड़ दिए जाओगे, एक बार घास बनकर देखो ,हर झंझावात से लड़ जाओगे, विनम्रता वो गुण है , जो हमें दुनिया में खास बनाता है, हर तूफान से लड़ने का जज़्बा ,एक शांत मन सेे ही आता है, विनम्रता ही हमें जीवन में ,प्रबुद्ध बना सकती है, एक साधारण से मनुष्य को भी, बुद्ध बना सकती है।। -पूनम आत्रेय ©poonam atrey #विनम्रता #मनुज
Dinesh Paliwal
।। संशय ।। संशय क्यों है मनुज तुझे अपने को क्यों दुविधा में डाला क्यों छोड़ चेतना को अपनी ले हाथ फिरे भय की माला।। इश्वर ने तुझको दी सिद्धि सब प्रकृति ने रख उन्नत है पाला खुद की क्ष्मता पर क्यों प्रश्नचिन्ह इस अमृत क्यों मिश्रित हाला।। रख विश्वास आस की गठरी अब क्यों अविश्वास का ये बादल काला हों उम्मीद सूर्य और श्रम किरणें तब तब ये संशय मन ने है टाला ।। तुम मेधावी हो लाख मगर, संशय मति को हर लेता है, ये जीवन रथ पर आ बैठा, तो जीने की गति हर लेता है, ये बीज़ अंकुरित मत होने दो, विष इसका अतिघातक है तिल तिल कर इस निज मन से, विश्वास कहीं टर लेता है ।। @dineshkpaliwal #संशय #मनुज
Death_Lover
राम यो जगत में मनुज नाहीं समझत समय की हानि, कुछ बिताए दियो बातन में, तो कुछ में विशुद्ध वाणी॥ "राम यो जगत में मनुज नाहीं समझत समय की हानि" (मेरे राम) ©Himanshu Tomar #मेरे_राम #मनुज #मनुष्य #हानि #बातें #समझदारी #विशुद्ध_वाणी #हिमांश #jail
रजनीश "स्वच्छंद"
मैं हिंदी हूँ।। मैं हिन्द की ज़ुबान हूँ, मैं ही गती मैं प्राण हूँ, मैं संस्कृति का बोध हूँ, मैं ही अभेद्य त्राण हूँ। मैं शर तिमिर को भेदती, मैं गीता सार वेद सी, समर में शंख की ध्वनि, मैं ही अचूक बाण हूँ। मैं ही गरीब पेट हूँ, मैं हो तो धन्ना सेठ हूँ, हुंकार भी पुकार भी, मैं ही स्वतंत्र गान हूँ। लिए पताका चल रहा, जो खाली पांव जल रहा, पताके पे जो छप रहा, मैं ही विरोध भान हूँ। हूँ कृष्ण का अवतार में, हूँ राम जग को तार मैं, पूजा हवन ये गोष्ठी, मैं ही ज्वलन्त ज्ञान हूँ। हूँ निर्बलों का स्वर भी मैं, निशाचरों का डर भी मैं, मैं सप्त-अश्व सूर्य का, प्रखर प्रकाशमान हूँ। मैं ही दधीचि अस्थियां, मिटती असुर ये बस्तियां, प्रहार हूँ मै वज्र सा, मैं ही सुगम सुजान हूँ। हूँ भेद बंध तोड़ता, मनुज मनुज को जोड़ता, अंतहीन और अनन्त, मैं क्षितिज समान हूँ। मैं हिन्द की ज़ुबान हूँ, मैं ही गती मैं प्राण हूँ, मैं संस्कृति का बोध हूँ, मैं ही अभेद्य त्राण हूँ। ©रजनीश "स्वछंद" मैं हिंदी हूँ।। मैं हिन्द की ज़ुबान हूँ, मैं ही गती मैं प्राण हूँ, मैं संस्कृति का बोध हूँ, मैं ही अभेद्य त्राण हूँ। मैं शर तिमिर को भेदती,
मैं हिंदी हूँ।। मैं हिन्द की ज़ुबान हूँ, मैं ही गती मैं प्राण हूँ, मैं संस्कृति का बोध हूँ, मैं ही अभेद्य त्राण हूँ। मैं शर तिमिर को भेदती, #kavita #hindidivas
read moreरजनीश "स्वच्छंद"
मर्यादा टापूं।। तुम आज कहो तो मैं ये छापूं, थोड़ी मर्यादा मैं अपनी टापूं। जो देख देख भी दिखा नहीं, जो ज्ञान की मंडी बिका नहीं। जो गाये गए ना भाए गए, बस पांव तले ही पाए गए। जीवन जिनका फुटपाथी रहा, कपड़े के नाम बस गांती रहा। एक लँगोटी जिन्हें नसीब नहीं, थाली भी जिनके करीब नहीं। रक्त शरीर दूध छाती सूखा, नवजात पड़ा रोता है भूखा। भविष्य कहां वर्तमान नहीं, जिनका जग में स्थान नहीं। जमीं बिछा आसमां ओढ़कर, सड़क पे सोया पैर मोड़कर। नाक से नेटा मुंह से लार, मिट्टी बालू जिनका श्रृंगार। चलो आज उनकी कुछ कह दूं, एक गीत उनपे भी गह दूँ। चौपाई छंद दोहा या श्लोक, लिख डालूं जरा उनका वियोग। जो कलम पड़ी थी व्यग्र बड़ी, कण कण पीड़ा थी समग्र खड़ी। भार बहुत रहा इन शब्दों का, किस कंधे लाश उठे प्रारबधों का। आंसू रोकूँ या रोकूँ शब्दधार को, किस कवच मैं सह लूं इस प्रहार को। जाने किस पर मैं क्रोध करूँ, हूँ मनुज क्या इतना बोध करूँ। क्या बचा है जो मैं शेष लिखूं, किन कर्मों का कहो अवशेष लिखूं। मैं नीति नियंता विधाता नहीं, मैं एक यंत्र हुआ निर्माता नहीं। पर कहीं कलेजा जलता है, जब लहु हृदय में चलता है। मैं उद्धरित नहीं उद्धार करूँ क्या, कुंठित मन से उपकार करूँ क्या। मुझपे मानो ये सृष्टि रोयी है, मनुज की जात भी मैंने खोयी है। मैं रहा जगा गतिमान रहा, पर हाय, आत्मा सोयी है। हाँ हाँ आत्मा सोयी है। सच है आत्मा सोयी है। ©रजनीश "स्वछंद" मर्यादा टापूं।। तुम आज कहो तो मैं ये छापूं, थोड़ी मर्यादा मैं अपनी टापूं। जो देख देख भी दिखा नहीं, जो ज्ञान की मंडी बिका नहीं। जो गाये गए ना भाए गए, बस पांव तले ही पाए गए।
रजनीश "स्वच्छंद"
ज़िन्दगी के पन्ने पलटते हैं। ज़िन्दगी अपने करीब इधर करते हैं। इसके भी नाम एक पहर करते हैं। रहे उलझे खोने पाने की जुगत में, चलो आज इससे कुछ इतर करते हैं। शिशु बन फिर सोएं ममता गोद मे, ममता से फिर खुद को तर करते हैं। वो बालपन की क्रीड़ा कौतूहल भरी, फिर से वो अल्हड़ता बसर करते हैं। रवानी लिए थी जो आयी जवानी, ले रेती नुकीला अपना शर करते हैं। प्रौढ़ तो हो गया स्वर्णयुग था बीता, उस युग अपना फिर से घर करते हैं। कई सवाल उलझे से लगते हैँ जो, आओ खुद से भी हम समर करते हैं। अमृत घट की तलाश जो रही उम्र भर, नहीं मंथन कभी कोई हम मगर करते हैं। ये अनुभव दे भी जाती है सीख कई, शाम को भी हो रौशन सहर करते हैं। था घरौंदा जो बनाया कभी रेत पर, ज़मींदोज़ उसे ही तो ये लहर करते हैं। ईंट और रोड़ी लिए घूमता ही बस रहा, एक आशियाँ इसकी भी नज़र करते हैं। हम रहे भागते बेसुद्ध और बदहवास, चलो ये काम अब थोड़ा ठहर करते हैं। मनुज हैं मनुज बन महकें इस चमन में, हम चलो फूलों संग अब सफर करते हैं। कहाँ को हम चले थे, आ पहुंचे कहाँ हम, चलो सीधी अब अपनी ये डगर करते हैं। जो रोग पाला था हमने, महामारी हुई, इनपे दवा बन चलो अब असर करते हैं। ©रजनीश "स्वछंद" ज़िन्दगी के पन्ने पलटते हैं। ज़िन्दगी अपने करीब इधर करते हैं। इसके भी नाम एक पहर करते हैं। रहे उलझे खोने पाने की जुगत में, चलो आज इससे कुछ इतर करते हैं।
रजनीश "स्वच्छंद"
किस्से अनगिन मैं गढ़ता हूँ। कहानी एक सुनाने को, किस्से अनगिन मैं गढ़ता हूँ। दुख की बदली, आंखों का नीर, बन मीन मैं पढ़ता हूँ। सबल-निर्बल की चौड़ी खाई ले शब्द मैं पाटा करता हूँ, आंसू जो हैं भाप बने, आंसू आंखों से छीन मैं लड़ता हूँ। सुंदर स्वप्न पे हक सबका, जागीरदार बचा है कोई नहीं, उनके हक की ही ख़ातिर, प्रयत्न हो दीन मैं करता हूँ। प्रेम का धागा उलझा कहाँ है, मनुज मनुज भेद है क्यूँ, धागा स्वेत और ले कुरुसिया, सुंदर दिन मैं कढ़ता हूँ। धरा जो सबकी जननी है, धरा पे सबका हक तो हो, स्वम्बू से कर शीतल सबको, बंजर जमीन मैं तरता हूँ। पेट पीठ चिपके थे, फुटपाथों पर सोया भविष्य मिला, मज़हब मेरा कोई नहीं, फिर क्यूँ हो हींन मैं गड़ता हूँ। तुम सबल हुए महलों में रहे भौतिकता से लबरेज़, देख विषमता दुनिया की, ले आत्मा मलीन मैं बढ़ता हूँ। ©रजनीश "स्वछंद" किस्से अनगिन मैं गढ़ता हूँ। कहानी एक सुनाने को, किस्से अनगिन मैं गढ़ता हूँ। दुख की बदली, आंखों का नीर, बन मीन मैं पढ़ता हूँ। सबल-निर्बल की चौड़ी खाई ले शब्द मैं पाटा करता हूँ, आंसू जो हैं भाप बने, आंसू आंखों से छीन मैं लड़ता हूँ।