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रिश्तों को ढोते ढोते ,मैं कहीं खो गई हूँ, भीड़ भी ह

रिश्तों को ढोते ढोते ,मैं कहीं खो गई हूँ,
भीड़ भी है महफ़िल भी है ,पर मैं तन्हा हो गई हूँ,
उदास चेहरे पर कबसे ,झूठी हँसी का मुखौटा है,
ख़ुद से ख़ुद की लड़ाई है ,जिसमे नाकाम हो गई हूं
सोचती रही कि ख़ुद से, मिल ही जाऊँगी किसी मोड़ पर,
पर दर्द के अथाह समंदर से , दामन  भिगो गई हूँ,
ये कौन सा समंदर है ,जिसका किनारा नही मिलता,
कभी खिलखिलाती थी खुलकर ,मगर अब मौन हो गई हूँ,
क्या थी कभी कैसी थी कभी ,अब कौन हो गई हूँ,।।

©poonam atrey
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