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देहिया पे सुनर साड़ी,होठवा पे मधीम लाली-2 आँचल लहरा के जब जाली,दिल हमरो साथे ले जाली हो हो की दिल हमरो साथे ले जाली। हो दिल हमरो साथे ले जाली
हो दिल हमरो साथे ले जाली
read moreJiya Wajil khan
ग़ज़ल- 2122 2122 2122 2122 2 इतने फ़ाजिल है मगर फिर कुछ सदायें मार देती है दाग़ हम कुछ काफि'रों को अब दुआयें मार देती है उस दरीचे की गरेबाँ कैद है बस इक़ हिफ़ा'जत में अब मिरे इस घर को कुछ क़ा'तिल हवायें मार देती है तुम बड़े शायर नही लगते बता'ओ कौन हो तुम याँ रे मियाँ अंजान लोगों को बलायें -मार देती है कोई बीमारी बड़ी कब थी मुहब्बत की न'जऱ में यार कम्बख्त इक़ इस मुहब्बत में दवायें मार देती है कुछ दिनों हम दश्त की छांवों में रहना चाहते है अब जाने किसने ये कहा है की फिजायें मार देती है अहद टूटा, मर नही जाऊंगा शिक'वा मत करो जाहिल आद'मी को इन दिनों ज्यादा वफा'यें मार देती है पीना पड़ता है जो मिल'ता है जहर की उन दुकानों से आजकल इस शहर बे-मत'लब रजायें मार देती है रंग उड़ता भी कहाँ है इस ग़ज़ल का फिर जिया वाजिल ये बुरा है हाथों को अब कुछ हिना'यें मार देती है ©Jiya Wajil khan #जिया
Jiya Wajil khan
ग़ज़ल - 2122 2122 1221 2212 देर तक ठहरे मिज़ाज-ए-मुदारात इस कूचे में आ रहे है अब तिरे कुछ ख़यालात इस कूचे में हमको ना दीजो कोई गर्द जह'मत की वाइज मिरे हो गया हूँ यक ब-कैफ़ी-ए-हालात इस कूचे में तुम नही कुरआन में बे-सदा चीखने वाले गर मत करो जाया ये वक़्त-ए-मुनाजात इस कूचे में अपने सब अहद-ए-वफ़ा लौटा दूँगा तिरे दर कभी जान ले सक'ती है कोई मुला'क़ात इस कूचे में इस मुहब्बत के शगूफे जिया'दा नही चलते दाग़ यार रह'ने दो तिरे सब इशा'रात इस कूचे में याँ ये किसका खूँ पड़ा है जमीं की दरारों में फिर कौन जाहिल कर रहा था करा'मात इस कूचे में तुम वक़ा'लत भी पढ़े हो मगर चुप ही रहना जफ़र इश्क़ के दामन मिरे पाँव कोई हिना से कटे रो रही है अब मिरी कोई बा'रात इस कूचे में अब नही मिलती तला'फ़ी-ए-मा'फ़ात इस कूचे में बे-दिली का शहर फिर ख़ाक-पत्थर दे सकता है बस अब बड़ा नुक़'सान देंगे ये हा'जात इस कूचे में हमने भी इक़ दो ग़ज़ल अप'ने हाथों रखी है जिया कुछ दिनों से हो रहा है, जो है'यात इस कूचे में ©Jiya Wajil khan #जिया
Jiya Wajil khan
ग़ज़ल - 2122 2122 2212 1222 कोई उलफ़त में मरूँगा पर इक़ दुआ नही लूंगा मैं किसी यक शख्स की अब कोई हया नही लूंगा वो बड़े घर की कोई शह'जा'दी है तो रहे फिर वो यार मैं इससे जियासा अब ये बला नही लूंगा देखो कितना खून टप'का है कल मिरी जबीं से याँ मैं कभी इन हा'थों में को'ई आयना नही लूंगा तू कभी आया नही मुझको देखने भी याँ ताबिश अब मुझे कोई ज'हर दे दो, मैं दवा नही लूंगा सोच'ती है आँधियाँ भी दी'पक बुझाने से पहले मैं बड़ा ख़ुद-ग़र्ज हूँ, मैं दी'पक नया नही लूंगा मुझसे तो फिर इश्क करने की शर्त भी यही है इक़ मैं तिरी कोई जबाँ फिर अहद-ए-वफ़ा नही लूंगा कुछ दिनों पहले ही कोई घर'बार लुटा है उस ज़ा'निब अब जमीं पर रह लूंगा उस ज़ानिब मकाँ नही लूंगा ये कलेजा कांपता है कोई ग़ज़ल सुनाने में रे जिया शा'यर हूँ, दो कौ'ड़ी के सिवा नही लूंगा ©Jiya Wajil khan #जिया
Jiya Wajil khan
ग़ज़ल - 2212 2122 2221 222 होकर के तन्हा कहीं पर बे-तदबीर बैठा हूँ मैं किसका क़ातिल हूँ जो फिर पा' जंजीर बैठा हूँ तुम तो मुहब्बत के सहरा हो तुम-से कहें भी क्या मैं कम्बख्त हूँ जो यक प्यासा नखचीर बैठा हूँ मुझ'को मिरी मौत से कोई शिक'वा नही है दाग़ मैं वैसे भी कब'से यक ज़ब्त-ए-तस्वीर बैठा हूँ वो आइनें फिर उसी शह'जादी के शहर निकले जिन आइनों में रजा, मैं दिल-गी'र बैठा हूँ अब बद्दुआ मत दो वाइज, मर'ने वाला हूँ मैं अब मैं अब तिरे दर में गिरफ्त-ए-शम'शीर बैठा हूँ कोई नज़र मुझ'पे भी रख दो जायगा क्या फिर मैं कबसे कोई मुसीबत-ओ-तक़बीर में बैठा हूँ सब कुछ मिरे हिस्से का खाते हो तुम मियाँ है'दर हैदर मैं हूँ की कोई फूटी तक़दीर बैठा हूँ ©Jiya Wajil khan #जिया